धर्म परिचय

धर्म का अर्थ पूर्णत: प्रकट नहीं किया जा सकता है, लेकिन इस विषय पर अध्ययन, मंथन एवं विवेचन मनुष्य की उपलब्ध मानसिक सामर्थ्य के आधार पर लोक कल्याण हेतु प्रस्तुत किया जा सकता है.प्राचीन ग्रंथ मनुस्मृति धर्म के विषय में हमें बताता है कि,

धर्म एव हतो हन्ति धर्मो रक्षति रक्षितः ।

तस्माद्धर्मो न हन्तव्यो मा नो धर्मो हतोऽवधीत् ।। मनुस्मृति८।१५

अर्थात् जो लोग ‘धर्म’ की रक्षा करते हैं, उनकी रक्षा स्वयं हो जाती है।

सांख्य दर्शन के अनुसार

धर्मेण गमनमूध् र्वं गमनमधस्ताद्भवत्यधर्मेण।

ज्ञानेन चापवर्गो विपर्ययादिष्यते बन्धः ।। सांख्यकारिका ४४

अर्थात् धर्म के अनुसरण से उन्नति को प्राप्त किया जा सकता है। अधर्म से दुर्गति (पतन) की प्राप्ति होती है। ज्ञान से मोक्ष प्राप्त होता है, इसके विपरीत व्यवहार से बंधन प्राप्त होता है, अर्थात् मनुष्य को विभिन्न निकृष्ट योनियों में पड़कर दुख प्राप्त होता है।

धर्म किसी विशेष पद्धति का संकेतक नहीं है, जो सत्य है, नित्य है और जिसका “ना आदि है और न ही अंत”. धर्म जीव के नित्य कर्म और वृत्ति का सूचक है और नित्य कर्म सर्वथा अपरिवर्तित रहता है. कर्म को जीव से कभी भी अलग नहीं किया जा सकता, अर्थात धर्म जीव का शाश्वत और अभिन्न भाग है। जिसे धारण किया जा सकता है, वह धर्म है.धर्म को विस्तारित करते हुए श्रीमद्भागवत में धर्म की तेरह पत्नियों का उल्लेख किया गया है।

श्रद्धा मैत्री दया शांतिस्तुष्टिः पुष्टिः क्रियोन्नतिः ।

बुद्धिर्मेधा तितिक्षा ह्रीर्मूर्तिर्धर्मस्य पत्नयः ।। श्रीमद्भागवत ४-१-४८

श्रद्धा, मैत्री, दया, शान्ति, तुष्टि, पुष्टि, क्रिया, उन्नति, बुद्धि, मेधा, तितिक्षा (धैर्य), ह्री (लज्जा) और मूर्ति- ये धर्म की पत्नियां हैं।

श्रद्धासूत शुभं मैत्री प्रसादमभयं दया।

शांतिः सुखं मुदं तुष्टिः  स्मयं पुष्टिरसूयत।।

योगं क्रियोन्नतिर्दर्पमर्थं बुद्धिरसूयत।

मेधा स्मृतिं तितिक्षा तु क्षेमं ह्रीः प्रश्रयं सुतम्।।

मूर्तिः सर्वगुणोत्पत्तिर्नरनारायणावृषि।। श्रीमद्भागवत ४-१/५०-५२

इनमें से श्रद्धा ने शुभ, मैत्री ने प्रसाद, दया ने अभय, शांति ने सुख, तुष्टि ने मोद और पुष्टि ने अहंकार को जन्म दिया। क्रिया ने योग, उन्नति ने दर्प, बुद्धि ने अर्थ, मेधा ने स्मृति, तितिक्षा ने क्षेम और ह्री ने प्रश्रय (विनय) नामक पुत्र उत्पन्न किया। समस्त गुणों की खान मूर्ति देवी ने नर-नारायण ऋषियों को जन्म दिया। अर्थात् यह सभी गुण हर जीव के अनिवार्य चिर सहचर शाश्वत गुण हैं और यह सब गुण ही उसके नित्य धर्म है।