पुनर्जन्म

पग-पग पर मनुष्य को वास्तविक कटु अनुभवों, जो शाश्वत सत्य होते हैं, का आभास कराने हेतु सृष्टिकर्ता ब्रह्मा (परब्रह्म परमात्मा) अपने एक रूप को बिखेर कर अनेक छोटे-छोटे आत्मा के रूप में मनुष्य को इस पावन कर्मभूमि में सत्य का आभास कराने के लिए, नवरत्न देकर, जो मनुष्य के द्वारा मात्र मानचित्र बना होता है उसमें स्वयं अदृश्य रूप से गूढ़ परतों के अंदर गतिविधियों (सत्य-असत्य) के परिणामों का अनुभव कराने का शुभ अवसर प्रत्येक ‘जीव+आत्मा= जीवात्मा’ को देते हैं। वह जीवात्मा इस (भवसागर, पृथ्वीलोक, मृत्युलोक, भूलोक अथवा कर्मभूमि में) अनेक अपने ही समान अन्य जीवात्मा से अपरिचित सा बना रहता है। ब्रह्मा की बेटी (मां शारदा) के कर कमलों से उसे मात्र सांसारिक या कहें आंशिकविद्याप्राप्त कर, शायद किसी न किसी माध्यम से उस परब्रह्म परमात्मा रूपी सागर को लक्ष्य करता हुआ विलीन हो जाता है।वास्तव में यदि इस विषय के गूढ़ रहस्य का अंत पाना है, तो मनुष्य मात्र के लिए एक आलम्ब बनकर उस लक्ष्य कीप्राप्ति तक सहायता पहुंचा कर, जहां से वह प्रकीर्णित हुआ था, वही स्वाभाविक रूप से जा पहुंचता है।

यह समस्त क्रियाएं अवश्य, परंतु गूण रूप से मनुष्य को पग-पग पर अप्रत्यक्ष रूप से समझाया करती हैं किईश्वर की असीम महिमा से मनुष्य कठोर परीक्षा हेतु, वह उसे सहायक सभी सामग्री अपनी शक्ति के अनुसार, उसके पैदा होने से पहले ही मौजूद किए रखता है। बुद्धि, आंख, कान, नाक, मुंह, जीभ यह सभी ज्ञानेंद्रियां मनुष्य को वास्तव में असली परम तत्व को प्राप्त करने के लिए ही दी होती हैं, साथ ही उस प्रेमाश्रयी की अविरल धारा से जोड़ दिया जाता है। सृष्टिकर्ता अपने स्वरूप को अनेक रूप में कर्म करने, जीवात्मा के रूप में फैला कर,उस जीवात्मा का वास्तविक ईश्वर प्रेम की कसौटी में खरा उतरने के लिए स्वतंत्र कर देता है, साथ में अपनी दृष्टि उसके शुभ कर्मों, फलों अथवा भाग्य के रूप में जीवात्मा पर संबंध जोड़े रखता है।

साधारण मनुष्य उसी परमात्मा से माता-पिताओं के रूप में शरीर का निर्माण कर उसके तत्वों से आर्विभूत होता है, और पैदा होकर, रो-रोकर, साढ़े तीनहाथ का मांस-हड्डियों के पिंड में सांसारिक जाल के अंदर उसी सांस से संबंध रखता है।ईश्वर किसी भी रूप में मनुष्य को सच्चाई की सीमा पर बाध्य करता हुआ, उसे अपने से अलग कभी नहीं रखता परंतु साधारण मनुष्य इस रहस्यमई बात को संसार रूपी विकराल मेले में भूलकर अपने लक्ष्य को भी माया एवं मन के वशीभूत होकर खानाबदोश एवं घुमक्कड़ हो जाता है।

मन, बुद्धि, विवेक 

मनुष्य के मन को आत्मा के साथ जोड़कर परमात्मा को प्राप्त किया जा सकता है, परंतु समस्या यह पड़ जाती है कि वह शरीर रूपी दुष्ट शक्ति के साथ सामंजस्य स्थापित करने को बाध्य हो जाता है, क्योंकि उसका कार्य शरीर की इच्छा शक्ति को जागृत करना, सुसुप्त कर पुनः नई जघन्य एवं दुगनी-दुगनी इच्छाओं का शरीर के लिए समयान्तराल पर पुनः निर्माण करना होता है।

वास्तव में ईश्वर ने यह मन, आत्मा-परमात्मा अर्थात् स्वयं तक पहुंचने की इच्छा जागृत कर चेतन करने के लिए दिया होता है, परंतु साधारण मनुष्य जो स्वयं ईश्वर रूप होकर भी अपने को नहीं पहचान पाता और शरीर की इच्छाओं को दमन करते-करते वृद्ध हो जाता है. नासमझी की सीमा उसको मौत के अंतिम क्षणों के बाद भी नहीं छोड़ती। यह तो एक शरीर में प्रवेश होने पर मनुष्य को पहला मौका देती है, न समझ पाने पर अथवा बुद्धि एवं गुरु के उपयुक्त उपयोग के अभाव एवं अज्ञान के कारण पुनः तब तक ८४लाख योनियों तक उसे उस लक्ष्य को समझने के लिए बाध्य होकर पुनर्जन्म लेना पड़ता है, जब तक की बुद्धि, विवेक, मन, आत्मा के साथ संबंध छोड़कर परमात्मा तक पहुंचने का मार्ग न तय कर ले।

वास्तविक प्रेम

प्रेम के विशुद्ध एवं पावन शब्द के विकृत होने से साधारण मनुष्य यह भी भूल जाता है, कि मुझे मनुष्य से प्रेम करना है या मनुष्य के अंतर्निहित गूढ़ दिव्य अलौकिक परम तत्व को। वह मात्र मनुष्य द्वारा निर्मित मनुष्य की बाह्य सुंदर, गोरी-काया पर अपना जीवन बर्बाद कर देता है, साथ ही विकृत विचारों से शरीर को विकृत भी कर देता है. कुंठित होकर वह स्वयं तो भटकता ही है और काले अज्ञान रूपी चश्मे से वह सबको स्वयं का जैसा अनुभव करने लगता है। मनुष्य यह नहीं जानता है कि मैं कौन हूँ? अहंकार से लबालब, बिष रूपी अनैतिक विचारों की असत्यता पर नजरअंदाज कर भ्रमित हो उठता है।


श्री शंकर दत्त पन्त