योग

योग शरीर, मन और भावनाओं में संतुलन एवं सामंजस्य स्थापित करने का एक साधन है. इसकी प्रासंगिकता तब और बढ़ जाती है जब यह वैज्ञानिकता के साथ विश्व के सृजनकर्ता से सायुज्य स्थापित करा देता है। योग, सांख्य का ही क्रियात्मक प्रतिरूप है। योग, साधक के लिए वह साधना है जो उसे साध्य अर्थात् मोक्ष तक पहुंचाता है। योग का सर्वप्रथम प्रभाव व्यक्ति के शरीर पर पड़ता है. जब पेशियों और तंत्रिकाओं के कार्यकलापों में असंतुलन उत्पन्न होता है तो अंतःस्रावी प्रणाली के अनियमित होने से तंत्रिका तंत्र की कार्य क्षमता क्षीण हो जाती है, और शरीर को अनेक व्याधियाँ घेर लेती हैं. इस अवस्था में योग और प्राणायाम इस क्षीणता को न्यून करके शरीर की कार्यप्रणाली को नियंत्रित करता है और शरीर निरोगी रहता है। योग शरीर के विभिन्न कष्टों का शमन तो नहीं कर सकता परंतु उनसे प्रतिस्पर्धा करने की प्रमाणिक विधि प्रदान करता है।

स्वामी शिवानंद जी योग की व्याख्या करते हुए कहते हैंकि जो विचार वाणी और कर्म के बीच समन्वय और सामंजस्य स्थापित करता है, वह योग है. मन, भावना और कर्म के बीच सामंजस्य का नाम योग है. योगाभ्यास से भावनात्मक, मानसिक और शारीरिक स्तरों के आपसी संबंधों के प्रति सजगता का विकास होता है, साथ ही यह सजगता भी आती है कि इनमें से किसी एक में असंतुलन उत्पन्न होने पर अन्य भी प्रभावित हुए बिना नहीं रहते क्रमशः यह सजगता अस्तित्व के सुख क्षेत्रों को समझने की क्षमता प्रदान करती है।

योग की कई शाखाएं हैं, राजयोग, हठयोग, ज्ञान योग, कर्म योग, भक्ति योग, मंत्र योग, कुंडलिनी योग, आदि कई ग्रंथों में इसकी विस्तृत व्याख्या की गई है. हर व्यक्ति को अपने व्यक्तित्व एवं निजी आवश्यकताओं के अनुरूप इनमें से स्वयं के लिए उपयुक्त योगों का चयन कर लेना चाहिए. बीते ५०वर्षों में विभिन्न योग पद्धति में से हठयोग की लोकप्रियता में सबसे अधिक वृद्धि देखी गई है.जिससे अधिकाधिक लोग योगाभ्यास के प्रति उन्मुख हो रहे हैं, योग संबंधी अवधारणा का विस्तार हो रहा है और योग के संबंध में जानकारी भी बढ़ रही है. प्राचीन ग्रंथों के अनुसार सत्कर्म को ही हठ योग कहा जाता है, किंतु आज हठयोग के अंतर्गत आसन, प्राणायाम, मुद्रा और बंधो को भी सम्मिलित कर लिया गया है।

योग विश्व के मानव के लिए भारत की महानतम उद्भावना और उद्घोषणा है. योग मनुष्य के अंदर सुप्तप्राय पड़ी अंतर्दृष्टि को प्रबोधक और आंदोलित करता है. योग का संस्पर्श बुद्धि को पर्वत से भी और समुद्र से भी अधिकगंभीर बना देता है, अवसाद के क्षणों में योग का साहचर्य सघन विश्रांति देने वाला है, यह शंकालु चित्त को दिव्य प्राप्ति के आश्वासन से पूरित कर देने वाला है. योग का अर्थ हैमिलना-जुड़ना, संयुक्त आदि. जिस विधि से साधक अपने प्रकृति जन्म विकारों को त्याग कर अपनी आत्मा के साथ संयुक्त होता है, वही योग है.व्याकरण शास्त्र में युज धातु से भाव धत्र प्रत्यय करने पर योग शब्द व्युत्पन्न होता है. महर्षि पाणिनि का धातु पाठ के दीवादिगण में युज समाधौ रूधादि गण में युजिर योगे तथा चुरादिगण में युज संयमने अर्थ में युज धातु आती है।आत्मा का परमात्मा के साथ संयुक्त होकर समाधि की अवस्था ही योग है और इसके अर्थ संयोजक, मिलन, संयोग तथा समाधि होते हैं।

श्री शंकराचार्य की भाषा में अनुभव युक्त ज्ञान ही विज्ञान सहित ज्ञान है और वही योग है. चेतना, अस्तित्व का बोध कर अपने अंदर निहित शक्तियों को विकसित करना तथा उस परमपिता का साक्षात्कार कर उसमें विलीन हो जाना, परम आनंद की प्राप्ति, योग समाधि के द्वारा आत्म दर्शन पूर्वक स्वरूप व स्थिति को प्राप्त करना और अंत में कैवल्य मोक्ष को प्राप्त कर लेना ही योग है और यहीयोग का वास्तविक अर्थ है।

योग की परिभाषा

योग शब्द वेदों, उपनिषदों, गीता और पुराणों आदि प्राचीन ग्रंथों में व्यवहृत होता आया है।भारतीय दर्शन में योग एक अति महत्वपूर्ण शब्द है इसे अलग-अलग ढंग से परिभाषित किया गया है. विभिन्न योगियों ने योग कोअपनी-अपनी भावना एवं अनुभव के अनुसार परिभाषित किया है,भगवत् गीता में विभिन्न संदर्भों में निम्नलिखित तीन परिभाषाओं द्वारा योग को परिभाषित किया है।

योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय

सिद्धयसिद्धयोः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते गीता२।४८

अर्थात् हे धनंजय! तू आसक्ति का त्याग करके सिद्धि-असिद्धि में सम होकर योग में स्थित हुआ कर्म को करक्योंकि समता को ही योग कहा जाता है।अतः सुख-दुख, मान,अपमान,रिद्धि-सिद्धि आदि विरोधी भाव में समान रहने को भगवान ने योग बताया है, सुख में ना अधिक प्रसन्न होना और दुख में अधिक दुखी होना ही योग है.

बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते

तस्माद्योगाय युज्यस्व योग: कर्मसु कौशलम् गीता२/५०

अर्थात्हे धनंजय!सम बुद्धि युक्त पुरुष पुण्य और पाप दोनों को इसी लोक में त्याग देता है अर्थात् उनसे मुक्त हो जाता है, इससे तू समत्व रूप योग में लग जा, यह समत्व रूपयोग ही कर्मों में कुशलता है अर्थात् कर्म बंधन से छूटने का उपाय है।

कर्मों को इतनी सुचारु रूप से करना कि कुछ करना शेष न रह जाए, कुशलता है. निस्वार्थ भाव से कर्म को कुशलता पूर्वक करना ही योग है.

तं विद्याद् दु:खसंयोगवियोगं योगसंज्ञितम्

स निश्चयेन योक्तव्यो योगोऽनिर्विण्णचेतसागीता६/२३

अर्थात् जिसमें दुःखोंके संयोगका ही वियोग है, उसीको योग नामसे जानना चाहिये। वह योग जिस ध्यानयोगका लक्ष्य है.अतः इस योग को धैर्य और उत्साह के साथ चित्त से निश्चय पूर्वक करना चाहिए।

योग के ग्रंथों में सबसे प्राचीन व प्रमाणिक ग्रंथ महर्षि पतंजलि कृत योगसूत्र के प्रथम अध्याय समाधि पाद में योग को परिभाषित किया गया है,

योगश्चित्तवृत्तिनिरोध:

अर्थात् चित्त की वृत्ति का रुक जाना हि योग है. योग शब्द का यहां आशय समाधि से है. योग दर्शन में चित्त शब्द, मन, बुद्धि, अहंकार तीनों का रूप है तथा सांख्य दर्शन में चित्त को महत एवं बुद्धि बताया है। चित्त का सीधा संबंध हमारी आत्मा से है.

कैवल्य उपनिषद में कहा गया है

श्रद्धाभक्तिध्यानयोगादवेहि

अर्थात्श्रद्धा, भक्ति, ध्यान के द्वारा आत्मा का ज्ञान ही योग है.

याज्ञवल्क्य के अनुसार

तद्योगेनात्मदर्शनम्

अर्थात् योग के द्वारा ही आत्मा और परमात्मा का ज्ञान होना बताया गया है।

चित्त हमेशा चलायमान रहता है, जिस प्रकार जल में हवा के प्रवाह से वर्तुल आकार गोल-गोल लहरें उठती रहती हैं, ठीक उसी प्रकार चित्त के बाह्य विषयों के संपर्क में आने से हलचल या परिणाम उत्पन्न होते हैं जिन्हें प्रतियां कहते हैं. हमारी अंदर की वासना ही मृत्यु का रूप ले लेती हैं, जिससे चित्त की चंचलता बनी रहती है.चित्त में उठने वाले वृत्तियों को अभ्यास द्वारा धीरे-धीरे अपने नियंत्रण में कर लेना, उन्हें पूर्ण रूप से रोकना विरोध है. यह सब योग के माध्यम से ही संभव है.

 

लेखन: डाँ० नवीन भट्ट

सम्पादन:डाँ०हेमन्त के० जोशी