संसार का सार

जहां एक ही भूमि में एक ही मानव जाति निवास करती है, वहां की प्रकृति को तो देखिए, कितना अजीब है! एक तरफ खुशी है, दूसरी तरफ दुख ही दुख. नरक यही है, स्वर्ग यही है, लोग अपने-अपने स्वार्थ सिद्धि पर पूर्णतया तत्पर हैं, फुर्सत ही नहीं है, दिनों दिन पाश्चात्य संस्कृति में डूबने को हम उन्नति समझ बैठे हैं. किसी को अपनी जान से हाथ धोना पड़ रहा है, कोई उसमें आनंद ही आनंद की अनुभूति कर रहा है, एक होते हुए भी अनेक हैं, अपरिचित हैं. विश्व बंधुत्व एवं वसुधैव कुटुंबकम की कोई भावना मनुष्य में नहीं है, मानवता का नामोनिशान हट गया है, छोटी-छोटी कुछ चीजों के प्रति मनुष्य चुंबक की भांति खींचा चला रहा है. समय का कुचक्र स्वयं फस गया है, मनुष्य दिन-रात व्यस्त है, अपने सगे संबंधियों तक में यह अजीब विडंबना की झलक देखने को मिलती है, सोए हैं, गहरी नींद में, अर्ध निद्रा में, तथा बेहोशी में मनुष्य बेसुध हो गया है।

इस मेले में मनुष्य सब कुछ भूल गया है. इस प्रकार की माया की रचना है कि मनुष्य अपने आप तक सीमित रह गया है. आध्यात्मिक पक्ष क्षीण पड़ता जा रहा है। चिंता इस बात की नहीं है कि इसका लोप हो सकता है, परंतु इस बात की है की मनुष्य (समय) का लोप हो जाएगा। जो मनुष्य अभी कुछ पा सकता है, वह फिर नहीं, क्योंकि समय का दुष्चक्र इतना कलमकारी तूफान से घिरा है कि मनुष्य के पास समय ही कहां जो आध्यात्मिक पथ पर उत्तरोत्तर वृद्धि कर सके। उसे तो वह मात्र धारणाओं की दीवार बनाकर गोबर गणेश की तरह से अपने मन मस्तिष्क पर स्थापित किए हुए हैं.

मनुष्य केवल यह जानता है कि वह मनुष्य है, वह अपने अधिकारों तक ही सीमित होकर तटस्थ रह गया है, कर्तव्यों का तो उसे आभासी नहीं है। चकाचौंध, भौतिकता की भी हद हो गई है, मनुष्य का इसकी ओर उन्मुख होना उसकी सफलता का द्योतक नहीं परंतु असफलता एवं विनाश की ओर बढ़ते कदम है. वह केवल यह सोचता है कि वह निर्माण कर रहा है. अपने किए पर गर्व से बड़प्पन का अनुभव करता है, परंतु वह आभास भी नहीं कर पाता कि मैं कितना दूर जाकर थपेड़े खाकर गिर चुका हूं. ऐसा मस्त दीवाना एक तरफा व्यक्ति हो गया है कि वह एक दिन कुतर-कुतर कर सब नष्ट कर डालेगा। पुनर्निर्माण करेगा, मिटाएगा, पुनर्निर्माण करेगा, परंतु जिस वस्तु को सुशोभित करना है, वह मात्र लाठी समझकर दृष्टिगोचर करने लगता है. ऐसो, आराम, विलासिता से ओतप्रोत उसका मस्तिष्क यथार्थ एवं वास्तविकता से कोसों दूर है. समय है, समय था, समय रहेगा, मनुष्य के समझने के लिए मौका अभी भी है. हाथ लगेगा, सफलता स्वयं चरण चूमेगी परंतु मनुष्य दूर भागेगा क्योंकि अंधा व्यक्ति हरियाली क्या होती है? क्या जाने! वह अंधा, जो अंधे को ही देख कर अपने आप में संतुष्टि पाकर एक लक्ष्य बनाकर अपनी मंजिल तय करता है. उस अंधे से तो वह अंधा उत्तम है जो कम से कम देख नहीं सकता।

जो स्वाद, एहसास, अनुभव महसूस करना जानता है, ग्रहण करता है, और रास्ता पा लेता है. मनुष्य अपने विचारों के लिए स्वतंत्र है, पर वह रहना नहीं चाहता, गुलामी ही उसे पसंद है, मनुष्य सब कुछ चरम उत्कर्ष तक पहुंचने के लिए संपूर्ण अर्पित करते रहे, जिससे उसे वास्तविक रहस्य का पता चल जाए और स्वरूप का अनुभव होने लगे।


श्री शंकर दत्त पन्त