महर्षि भृगु के वंश में उत्पन्न श्री शुक्राचार्य महान् शिवभक्तों में परिगणित है। इन्होने काशीपुरी में आकर एक शिंवलिंग की स्थापना की, जो शुक्रेश्वर नाम से प्रसिद्ध हुआ। भगवान विश्वनाथ का ध्यान करते हुए इन्होने बहुत कालतक घोर तप किया।
उनकी उग्र तपस्यासे प्रसन्न हो भगवान् शिव लिंगसे साक्षात् प्रकट हो गये। भगवान् शिवका स्तवन किया, वही स्तोत्र अष्टमूर्तिस्तव अथवा मूर्त्यष्टकस्तोत्र कहलाता है।
पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, यजमान (क्षेत्रज्ञ या आत्मा), चन्द्रमा और सूर्य - इन आठों में अधिष्ठित शर्व, भव, रुद्र, उग्र, भीम, पशुपति, महादेव, और ईशान- ये शिवकी अष्टमूर्तियों के नाम है।
आठ श्लोकोंवाली इस स्तुति के एक-एक श्लोक में पृथक् - पृथक् रुप से उपर्युक्त एक-एक स्वरुपकी वन्दना है। शुक्रचार्य की इस स्तुति से मृत्युंजय भगवान शिव इतने प्रसन्न हुए कि उन्होने मृत व्यक्तियों भी जीवित करने वाली संजीवनीविद्या उन्हें दे दी, जिसके बल पर शुक्रचार्य जिसको चाहते थे, उसे जीवित कर देते थे। भगवान् शिवके अनुग्रहसे ही शुक्र ग्रहों में प्रतिष्ठित हुए, सभी प्रकार का शुभ फल देने में समर्थ हुए और भगवान् शिव-पार्वती के प्रिय पुत्र रुप में उनकी प्रसिद्धि हुई ।