सुख-दु:ख और कर्म-फल

प्रत्येक मनुष्य के जीवन में एक प्रश्न अनवरत मन में उठते रहता है कि जीवन में मूलतः दुःख का क्या कारण है? प्रत्येक मनुष्य छोटे या बड़ी समस्या से घिरा हुआ है। इन्हीं छोटे-बड़े समस्याओं के बीच वह अनेक क्षणों में बार-बार ईश्वर या परम शक्ति के होने के प्रमाण को स्वीकार-अस्वीकार करता रहता है। परंतु वही मनुष्य जब किसी लॉटरी या अन्य प्रकार का लाभ प्राप्त करता है तो कहता है कि यह परिणाम भाग्य के फलस्वरूप ही आया है, क्या इस भाग्य और ईश्वर (परम तत्व) में कोई संबंध है?

इस आशय के मूल से मुख्यतः दृश्टिगोचर होता है कि सुख और दुःख दोनों ही हमारी सोचने कि क्षमता पर निर्भर करतें हैं। जब तक हम जीवित हैं तब तक किसी ना किसी कार्य में लिप्त रहना ही होगा क्योंकि यही जीवन का प्रमाण देता है। उस कर्म का परिणाम हमेशा अच्छा ही हो यह जरूरी नहीं, भले ही हमने वह कार्य सिर्फ अच्छाई सोच कर ही किया हो। जब कोई अच्छा कार्य बुरे परिणाम देता है तो उससे दर्द और दु:ख होता ही है। क्या इसका कोई उपाय है?

जब तक मनुष्य स्वयं को कर्ता मानेगा तब तक उसे दुःख भोगना ही होगा। यद्यपि सुख का समय अधिक होने पर भी वह जल्दी बीत जाता है। यदि हम किसी परम शक्ति की इच्छा मानते हुए कर्म करें तो उसके परिणाम की चिंता हमें नहीं करनी होगी, ठीक उसी प्रकार जैसे किसी कार्यालय में एक मनुष्य बड़े पद (ऑफिसर) पर होता है और दूसरा छोटे पद पर सेवक, बड़े पद पर आसीन अधिकारी छोटे पद वाले को कुछ कार्य करने की आज्ञा दें तो दूसरा मनुष्य अतिरिक्त मस्तिष्क का उपयोग किये बिना ही उस आदेश का अक्षरशः पालन करता है, क्योंकि वह जानता है कि इस कर्म के परिणाम से उसे ना तो कोई लाभ ही होना है और ना ही हानि, वह तो केवल कर्म करने के लिए है। यदि कर्म का परिणाम अच्छा हो तो बड़े पद वाले को ही प्रशंसा और पुरुस्कार मिलेगा और परिणाम प्रतिकूल हो जाए तो उसकी सजा भी बड़े पद वाले को ही मिलेगी।

इस बात से निष्कर्ष निकलता है कि सुख और दुःख का अनुभव केवल उसी को मिलता है जो बड़े पद पर था या जो कर्म करने के लिए जिम्मेदार था। छोटे पद वाले व्यक्ति ने सिर्फ कर्म किया, ना तो उसे सुख की अनुभूति होगी और ना ही दुःख की। पर क्या ऐसा भी संभव है कि वह व्यक्ति उदासीन रहे (ना तो सुख और ना ही दुख)।

उदासीनता को भी दो प्रकार से विभाजित किया जा सकता है एक तो नकारात्मक उदासीनता, जो नीरसता में डूबा हो। दूसरी उदासीनता जिसमें केवल आनंद है। कोई भी मनुष्य तब तक सुखी नहीं होगा जब तक कि वह सामान्य स्थिति (जैसा कि वह परमेश्वर द्वारा बनाया गया था तात्पर्य कि परम आनंद) में ना रहे।

यदा-कदा अनुभव होता है कि हम अकारण ही कुछ क्षण बहुत अच्छी मानसिक स्थिति में होते हैंऔर क्रोध हमसे काफी दूर महसूस होता है। उसी समय हमें सुख से भी बढ़कर आनंद की स्थिति का अनुभव होता है। क्या हम उस स्थिति में हमेशा रहना चाहते हैं? हाँ!  परंतु अवांछित परिस्थिति में उलझ कर हम उस आनंद की स्थिति को छोड़ पुनः नीरसता की स्थिति में पहुंच जाते हैं। अधिकांशतः पक्षियों को दाना देते समय, किसी कुत्ते को पुचकारते समय हमें आनंद मिलता है यह जानते हुए कि इस कार्य से हमारा निजी स्वार्थ सिद्ध नहीं होता। यहां आनंद इसलिए मिला क्योंकि हम अपेक्षा रहित नि:स्वार्थ और प्रेम भाव से उस कार्य को कर रहे हैं।

यदि हम अपने दैनिक जीवन के सभी कार्यों को नि:स्वार्थ भाव से एवं प्रेम के साथ करें तो हर कार्य में आनंद की अनुभूति होगी। सभी कार्यों को करते हुए केवल यह ध्यान रखना है की जो भी कार्य मैं कर रहा हूं वह उस परमपिता परमेश्वर की इच्छा से है। क्योंकि यदि कर्ता स्वयं को मानेंगे तो अहंकार होगा ही और सुख और दु:ख की जिम्मेदारी भी हमारी हो होगी। हमारा उद्देश्य सुख या दु:ख अर्जन नहीं वरन आनंद पाना होना चाहिए, क्योंकि सुख को सोने का और दु:ख का लोहे पाश (बंधन) कहा गया है।

संभवतः इसीलिए भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन से गीता में कहा: कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन


आभार
श्रीगुरुशरणम