ध्यान और उसकी महिमा, योग धर्म तथा शिव योगी का महत्व

ध्यान और उसकी महिमा, योग धर्म तथा शिव योगी का महत्व, शिव भक्ति या शिव के लिए प्राण देने अथवा शिव क्षेत्र में मरण से तत्काल मोक्ष-लाभ का कथन

उपमन्यु कहते हैं-श्री कृष्ण! श्रीकंठ नाथ का स्मरण करने वाले लोगों के संपूर्ण मनोरथों की सिद्धि तत्काल हो जाती है, ऐसा जानकर कुछ योगी उनका ध्यान अवश्य करते हैं।
कुछ लोग मन की स्थिरता के लिए स्थूल रूप का ध्यान करते हैं। स्थूल रूप के चिंतन में लगकर जब चित्त निश्चल हो जाता है, तब सूक्ष्म रूप में वह स्थिर होता है। भगवान शिव का चिंतन करने पर सब सिद्धियां प्रत्यक्ष सिद्ध हो जाती हैं। अन्य मूर्तियों का ध्यान करने पर भी शिव रूप का अवश्य चिंतन करना चाहिए।
जिस-जिस रूप में मन की स्थिरता लक्षित हो, उस-उस का बारंबार ध्यान करना चाहिए। ध्यान पहले सा विषय होता है, फिर निर्विषय होता है-ऐसा ज्ञानी पुरुषों का कथन है। इस विषय में कुछ सत पुरुषों का मत है कि कोई भी ध्यान निर्विषय होता ही नहीं। बुद्धि की ही कोई प्रवाह रूपा संतति 'ध्यान' कहलाती है।
इसलिए निर्विषय बुद्धि केवल-निर्गुण-निराकार ब्रह्म में ही प्रवृत्त होती है। अतः सविषय ध्यान प्रातः काल की सूर्य की किरणों के समान ज्योति का आश्रय लेने वाला है। तथा निर्विषय ध्यान सूक्ष्म तत्व का अवलंबन करने वाला है तथा निराकार स्वरूप का जो बोध या अनुभव है, वही निर्विषय ध्यान माना गया है। वह सविषय और निर्विषय ध्यान ही क्रमशः सबीज और निर्बीज कहा जाता है।
निराकार का आश्रय लेने से उसे निर्बीज और साकार का आश्रय लेने से सबीज की संज्ञा दी गई है। अतः पहले सभी सविषय या सबीज ध्यान करके अंत में सब प्रकार की सिद्धि के लिए निर्विषय अथवा निर्बीज ध्यान करना चाहिए। प्राणायाम करने से क्रमशः शांति आदि दिव्य सिद्धियां सिद्ध होती हैं। उनके नाम हैं- शांति, प्रशांति, दीप्ति और प्रसाद। समस्त आपदाओं के समन को ही शांति कहा गया है। तम (अज्ञान)-का बाहर और भीतर से नाश ही प्रशांति है। बाहर और भीतर जो ज्ञान का प्रकाश होता है, उसका नाम दीप्ति है तथा बुद्धि की जो स्वस्थता (आत्मनिष्ठता) है, उसी को प्रसाद कहा गया है। बाह्य और आभ्यंतर सहित जो समस्त करण हैं, बुद्धि के प्रसाद से शीघ्र ही प्रसन्न (निर्मल) हो जाते हैं।
ध्याता, ध्यान, ध्येय और ध्यान-प्रयोजन-इन चार को जानकर ध्यान करने वाला पुरुष ध्यान करे। जो ज्ञान और वैराग्य से संपन्न हो, सदा शांत चित्त रहता हो, श्रद्धालु हो और जिसकी बुद्धि प्रसाद गुणों से युक्त हो, ऐसे साधक को ही सत्पुरुषों ने ध्याता कहा है।
'ध्यै चिन्तायाम्' यह धातु है। इसका अर्थ है चिंतन। भगवान शिव का बारंबार चिंतन ही ध्यान कहलाता है। जैसे थोड़ा-सा भी योगाभ्यास पाप का नाश कर देता है, उसी तरह क्षण मात्र भी ध्यान करने वाले पुरुष के सारे पाप नष्ट हो जाते हैं। श्रद्धा पूर्वक, विक्षेप रहित चित्त से परमेश्वर का जो चिंतन है, उसी का नाम 'ध्यान' है।
बुद्धि के प्रवाह रूप ध्यान का जो आलंबन या आश्रय है, उसी को साधु पुरुष 'ध्येय' कहते हैं। स्वयं सांब सदाशिव ही वह ध्येय हैं। मोक्ष-सुख का पूर्ण अनुभव और अणिमा आदि ऐश्वर्य की उपलब्धि-ये पूर्ण शिव ध्यान के साक्षात् प्रयोजन कहे गए हैं।
ध्यान से सौख्य और मोक्ष दोनों की प्राप्ति होती है, इसलिए मनुष्य को सब कुछ छोड़कर ध्यान में लग जाना चाहिए। बिना ध्यान के ज्ञान नहीं होता और जिसने योग का साधन नहीं किया है, उसका ध्यान नहीं सिद्ध होता। जिसे ध्यान और ज्ञान दोनों प्राप्त हैं, उसने भवसागर को पार कर लिया। समस्त उपाधियों से रहित, निर्मल ज्ञान और एकाग्रता पूर्ण ध्यान-ये योगाभ्यास से युक्त योगी को ही सिद्ध होते हैं।
जिसके सारे पाप नष्ट हो गए हैं, उन्हीं की बुद्धि ज्ञान और ध्यान में लगती है। जिनकी बुद्धि पाप से दूषित है, उनके लिए ज्ञान और ध्यान की बात भी अत्यंत दुर्लभ है। जैसे प्रज्ज्वलित हुई आग सूखी और गीली लकड़ी को भी जला देती है, उसी प्रकार ध्यानाग्नि शुभ और अशुभ कर्म को भी क्षण भर में दग्ध कर देती है।
जैसे बहुत छोटा दीपक भी महान् अंधकार का नाश कर देता है, इसी तरह थोड़ा-सा योगाभ्यास भी महान् पाप का विनाश कर डालता है। श्रद्धा पूर्वक क्षण भर भी परमेश्वर का ध्यान करने वाले पुरुष को जो महान श्री प्राप्त होता है, उसका कहीं अंत नहीं है।
                    यथा वह्निर्महादीप्तः शुष्कमार्द्रं च निर्दहेत् । तथा शुभाशुभं कर्म ध्यानाग्निर्दहते क्षणात्।।
                       ध्यायतः क्षणमात्रं वा श्रद्धया परमेश्वरम् । यद्भवेत् सुमहच्छ्रेयस्तस्यान्तो नैव विद्यते।।
                                                                                                                                                 (शिव०पु०, वा०सं०, उ०ख० ३१।२५, २७)
ध्यान के समान कोई तीर्थ नहीं है, ध्यान के समान कोई तप नहीं है और ध्यान के समान को यज्ञ नहीं है; इसलिए अवश्य ध्यान करें।
                                                          नास्ति ध्यानसमं तीर्थं नास्ति ध्यानसमं तपः।
                                                      नास्ति ध्यानसमो यज्ञस्तस्माद्ध्यानं समाचरेत।।
                                                                                                                                                        (शिव०पु०, वा०सं०, उ०ख० ३१।२८)
अपने आत्मा और परमात्मा का बोध प्राप्त करने के कारण योगी जन केवल जल से भरे हुए तीर्थों और पत्थर एवं मिट्टी की बनी हुई देव मूर्तियों का आश्रय नहीं लेते [वे आत्मतीर्थ में अवगाहन करते और आत्म देव के ही भजन में लगे रहते हैं]।
जैसे अयोगी पुरुषों को मिट्टी और काठ आदि की बनी हुई स्थूल मूर्तियों का प्रत्यक्ष होता है, उसी तरह योगियों को ईश्वर के सूक्ष्म स्वरूप का प्रत्यक्ष दर्शन होता है। जैसे राजा को अपने अंतःपुर में विचरने वाले स्वजन एवं परिजन प्रिय होते हैं और बाहर के लोग उतने प्रिय नहीं होते हैं, उसी प्रकार भगवान् शंकर को अंतः करण में ध्यान लगाने वाले भक्त ही अधिक प्रिय है, बाह्य उपचारों का आश्रय लेने वाले कर्मकांडी नहीं।
जैसे लोक में यह देखा गया है कि बाहरी लोग राजा के भवन में राजकीय पुरुषोचित फल का उपभोग नहीं कर पाते, केवल अंतःपुर के लोग ही उस फल के भागी होते हैं, उसी प्रकार यहां बाह्य कर्मी पुरुष उस फल को नहीं पाते, जो ध्यान योगियों को सुलभ होता है।
ज्ञान योग की साधना के लिए उद्यत हुआ पुरुष यदि बीच में ही मर जाए तो भी वह योग के लिए उद्योग करने मात्र से रुद्र लोक में चला जाएगा। वहां दिव्य सुख का उपयोग करके वह फिर योगियों के कुल में जन्म लेगा और पुनः ज्ञान योग को पाकर संसार सागर को लांघ जाएगा।
योग का जिज्ञासु पुरुष भी जिस गति को पाता है, उसे यज्ञ कर्ता संपूर्ण महायज्ञों का अनुष्ठान करके भी नहीं पा पाता। करोड़ों वेदवेत्ता द्विजों की पूजा करने से जो फल मिलता है, वह एक शिव योगी को भिक्षा देने मात्र से प्राप्त हो जाता है। यज्ञ, अग्निहोत्र, दान, तीर्थ सेवन और होम-इन सभी पुण्य कर्मों के अनुष्ठान से जो फल मिलता है, वह सारा फल शिव योगियों को अन्न देने मात्र से प्राप्त हो जाता है।
जो मूढ़ मानव शिव योगियों की निंदा करते हैं, वे श्रोताओं सहित नर्क में पढ़ते हैं और प्रलय काल तक वहीं रहते हैं। श्रोताके होने पर ही कोई शिव योगियों की निंदा का वक्ता हो सकता है, इसलिए महापुरुषों के मत में उस निंदा को सुनने वाला भी महान् पापी और दंडनीय है। जो लोग सदा भक्ति भाव से शिव योगियों की सेवा करते हैं, वे महान् भोग पाते हैं और अंत में शिव योग की भी उपलब्धि कर लेते हैं। इसलिए भोगार्थी मनुष्यों को चाहिए कि वे रहनेको स्थान, खान-पान, श्यया तथा ओढ़ने-बिछाने की सामग्री आदि देकर सदा शिव योगियों का सत्कार करें।
योगधर्म सुदृढ़-अत्यंत प्रबल है, अतः पाप रूपी मुद्गगरों से उसका भेदन नहीं हो सकता। योग धर्म और पाप-मुद्गर में उतना ही अंतर समझना चाहिए, जितना वज्र और तंदुल में; अतः योगीजन पापों और ताप समूहों से उसी तरह लिप्त नहीं होते, जैसे कमल का पत्ता पानी से।
शिव योग परायण मुनि जिस देश में नित्य निवास करता है, वह देश भी पवित्र हो जाता है। फिर उसकी पवित्रता के विषय में तो कहना की क्या? अतः चतुर एवं विद्वान् पुरुष सब कृत्यों को छोड़कर संपूर्ण दुखों से छुटकारा पाने के लिए शिव योग का अभ्यास करे। जिसका योगफल सिद्ध हो गया है, वह योगी यथेष्ट भोगों को भोगकर समस्त लोकों की हित - कामना संसार में विचरे अथवा अपने स्थान पर ही रहे या विषय सुख को अत्यंत तुच्छ समझकर छोड़ दे और वैराग्य योग से स्वेच्छा पूर्वक कर्मों का परित्याग कर दे।
जो मनुष्य बहुत से अरिष्ट देखकर अपनी मृत्यु को निकट जान ले, उसे योगानुष्ठान में संलग्न हो शिव क्षेत्र का आश्रय लेना चाहिए। वह मनुष्य यदि धीर चित्त होकर वहीं निवास करता रहे तो रोग आदि के बिना भी स्वयं ही प्राणों का परित्याग कर सकता है। अनशन करके, शिवाग्नि शरीर की आहुति देकर अथवा शिव तीर्थों में अवगाहन करके हुए अपने शरीर को उन्हीं के जल में डालकर शिव शास्त्रोक्त विधि से जो अपने प्राणों का त्याग करता है, वह तत्काल मुक्त हो जाता है - इसमें अन्यथा विचार करने की आवश्यकता नहीं है अथवा जो रोग आदि से विवश होकर शिव क्षेत्र की शरण लेता है, उसकी भी यदि वहां मृत्यु हो जाय तो वह इसी प्रकार मुक्त हो जाता है इसमें संशय नहीं है।
इसलिए लोग अनशन आदि से शिव क्षेत्र में श्रेष्ठ मरण की कामना करते हैं; क्योंकि शास्त्र पर विश्वास करके धीर हुए मन से उनके द्वारा इस तरह की मृत्यु स्वीकार की जाती है।
शिव निंदा करने वाले को आक्रांत करके अथवा स्वयं निंदा से व्यथित होकर जो कठिनाई से त्याग किए जाने योग्य [अपने] प्राणों का त्याग कर देता है, वह पुनः जन्म नहीं लेता है।
शिव निंदा करने वाले को आक्रांत करने में असमर्थ जो [व्यक्ति] स्वयं मर जाता है, वह [अपनी] 21 पीढ़ियों के साथ स्वयं मुक्त हो जाता है। जो शिव के लिए अथवा शिव भक्तों के लिए प्राण त्याग करता है, उसके समान दूसरा कोई मनुष्य मुक्ति-मार्ग पर स्थित नहीं है।
इस प्रकार इस संसार-मंडल से उसकी शीघ्र मुक्ति हो जाती है। इनमें से किसी एक उपाय का किसी तरह भी अवलंबन करके अथवा विधिवत् षडध्वशुद्धि को प्राप्त होकर यदि कोई मनुष्य मरता है तो उसका अन्य पशुओं-प्राणियों के समान यहां और्ध्वदैहिक संस्कार नहीं करना चाहिए।
उसके पुत्र आदि को उसके मरने से अशौच की प्राप्ति नहीं होती। ऐसे पुरुष के मृत शरीर को धरती में गाड़ दें या पवित्र अग्नि से जला दे या शिवस्वरूप जल में डाल दें अथवा कार्ड या मिट्टी के ढेले की भांति कहीं भी फेंक दें, सब उसके लिए बराबर है। यदि ऐसे पुरुष के उद्देश्य से भी कोई कर्म करने की इच्छा हो तो दूसरों का कल्याण ही करे और अपनी शक्ति के अनुसार शिव भक्तों को तृप्त करे। उसके धन को शिवभक्त ही ग्रहण करे। यदि उसकी संतति शिवभक्त हो तो वह भी ग्रहण कर सकती है। यदि ऐसा संभव ना हो तो उसका धन भगवान शिव को समर्पित कर दे। परंतु उसकी पशु संतति (शिवभक्त हीन संतान) उस धन को ग्रहण न करे।


श्री शिव महापुराण, सातवीं वायवीय संहिता, उत्तरखंड में शैवयोग वर्णन नामक 39 वां अध्याय