देवीमयी..तव च का किल न स्तुतिरम्बिके !
तव च का किल न स्तुतिरम्बिके !
सकलशब्दमयी किल ते तनु: ।
निखिलमूर्तिषु मे भवदन्वयो
मनसिजासु बहि:प्रसरासु च ।।
इति विचिन्त्य शिवे ! शमिताशिवे !
जगति जातमयत्नवशादिदम् ।
स्तुतिजपार्चनचिन्तनवर्जिता
न खलु काचन कालकलास्ति मे।।
हे जगदंबिके! संसार में कौन सा वांगमय ऐसा है, जो तुम्हारी स्तुति नहीं है; क्योंकि तुम्हारा शरीर तो सकल शब्दमयी है। हे देवी! अब मेरे मन में संकल्प विकल्पात्मक रूप से उदित होने वाली एवं संसार में दृश्य रूप से सामने आने वाली संपूर्ण आकृतियों में आप के स्वरूप का दर्शन होने लगा है। हे समस्त अमंगलध्वंसकारिणि कल्याण स्वरूपे शिवे! इस बात को सोचकर अब बिना किसी प्रयत्न के ही संपूर्ण चराचर जगत में मेरी यह स्थिति हो गई है कि मेरे समय का क्षुद्रतम अंश भी तुम्हारी स्तुति, जप, पूजा अथवा ध्यान से रहित नहीं है। अर्थात् मेरे संपूर्ण जागतिक आचार-व्यवहार तुम्हारे ही भिन्न-भिन्न रूपों के प्रति यथोचित रूप से व्यहृत होने के कारण तुम्हारी पूजा के रूप में परिणत हो गए हैं।
महा माहेश्वर आचार्य अभिनव गुप्त