सनातन धर्म – एक विज्ञान

विश्व परिदृश्य में जीवन जीने की परिमार्जित एवं परिशुद्ध पद्धति, विधान, कर्म सिद्धांत का आधार पूर्णतः सनातन धर्म के अभिन्न अंग है। अनुशासित जीवनशैली को मनुष्य की मुख्य आवश्यकता बनाते हुए अनेक शास्त्रों एवं उपनिषदों का आविर्भाव हुआ। मनुष्य के जन्म से मृत्यु के अंतराल में अनेक कर्तव्य निर्वहन एवं निर्धारित विधि विधान का अनुसरण प्रासंगिक हो जाता है। साधन चतुष्टय को लक्ष्य बनाते हुए (यथा धर्म, अर्थ, काम, और मोक्ष) मनुष्य अपने जीवन में कार्यों का संपादन करता रहता है।

तैत्रिय संहिता के अनुसार मनुष्य जन्म लेते ही तीन ऋणों वाला हो जाता है (ऋषि ऋण, देव ऋण और पितृ ऋण)।

जायमानो वै ब्राह्मणस्त्रिभिर्ऋणवा जायते (६/३/१०/५)

भारतीय संस्कृति में इनसे अनृण होने के लिए शास्त्रों ने नित्य कर्म का विधान किया है जिस हेतु छ: मुख्य कर्म बताए हैं।

संध्या स्नानं जपश्चैव देवतानां च पूजनम्

वैश्वदेवं तथाऽऽतिथ्यं षट् कर्माणि दिने दिने

(बृ० प० स्मृ० १/३९)

मनुष्य को स्नान, संध्या, जप, देव पूजन, बलि वैश्वदेव और अतिथि सत्कार-यह छः कर्म प्रतिदिन करने चाहिए।

प्रत्येक कर्म के लिए मंत्र निर्धारित किए गए हैं। स्नान से पूर्व के कर्म हो या स्नान के पश्चात के कर्म, प्रत्येक निश्चित मंत्रों से संपन्न होते हैं।

वर्तमान समय में मानव, जिज्ञासु प्रवृत्ति के कारण इन सभी दैनिक कार्यकलापों एवं संध्या वंदन की आवश्यकता हेतु वैज्ञानिक कारण खोजता है। क्योंकि सनातन धर्म की पद्धति में शिखा धारण करना, तिलक धारण करना, यज्ञोपवीत (जनेऊ) धारण करना, संध्या वंदन, भगवत विग्रह दर्शन आदि कर्म करना मुख्य रूप से दृष्टिगोचर होता है।

धार्मिक स्थलों पर घंटियों का बंधा होना आदि प्रश्न सहसा मानव मस्तिष्क में प्रकट होते हैं क्योंकि अनेक प्रतीक चिन्ह और कार्यकलाप धार्मिक भावना की प्रगाढ़ता के लिए उपयोग में लाए जाते हैं।

इस लेख में इन प्रश्नों के उत्तर को, वैज्ञानिकता के साथ जोड़ते हुए, खोजने के प्रयास किए जा रहे हैं।

क्यों मंदिर में घंटा बांधा जाता है

किसी भी मंदिर के प्रवेश में एक घंटा बांधा जाता है और प्रत्येक भक्तों द्वारा प्रवेश से पूर्व घंट नाद किया जाता है, घंट नाद से ध्वनि 330 मीटर प्रति सेकंड के वेग से अपने उद्गम स्थान से फैलती है और कंपन पैदा होती है। घंटे के नीचे खड़े होने के कारण ध्वनि का नाद सहस्रार चक्र 'ब्रह्मरंध्र' (सर के ठीक ऊपर) में प्रवेश कर शरीर मार्ग से भूमि में प्रवेश करता है। घंट नाद से मन में उद्वेलित असंख्य विचार, तनाव, चिंता, उदासी, अनेक मनोविकार आदि समस्त नकारात्मकता तत्क्षण नष्ट हो जाती है तथा शुद्ध मन और शांत मन से मनुष्य मंदिर में प्रवेश करते हैं।जिसके साथ-साथ ध्वनि की तरंगदैर्ध्य एवं आवृत्ति से मंदिर प्रांगण के आसपास सूक्ष्म कीटाणुओं का भी शमन हो जाता है।

मंदिर प्रवेश के उपरांत तिलक लगाने का विधान है प्रयोग पारिजात में वर्णन है कि तिलक के बिना सत्कर्म सफल नहीं हो पाते हैं।

ललाटे तिलकं कृत्वा संध्याकर्म समाचरेत्

अकृत्वा भालतिलकं तस्य कर्म निरर्थकम्

ललाट में भृकुटी के मध्य योगी जन ध्यानावस्था में मन को एकाग्र करने का अभ्यास करते हैं। यदि इस स्थान पर तिलक या चंदन का लेप लगा दिया जाए तो ध्यान प्रक्रिया आसान हो जाती है। क्योंकि मस्तिष्क की तंत्रिका तंत्र का संपूर्ण जाल भृकुटी के मध्य से नियंत्रित होता है। इसलिए तिलक धारण करने का विधान है। भस्म से त्रिपुण्ड्र और श्रीखण्ड चन्दन से ऊर्ध्वपुण्ड्र एवं त्रिपुण्ड्र तिलक किया जाता है।

शिखा (चोटि) क्यों रखनी चाहिए

स्नान, दान, जप, होम, संध्या और देवाचन कर्म में बिना शिखा बांधे कभी कर्म नहीं करना चाहिए।

स्नाने दाने जपे होमे संध्यायां देवतार्चने

शिखाग्रन्थिं विना कर्म न कुर्याद् वै कदाचन

मनुष्य शरीर के ऊर्जा कोष में 27000 नाड़ियों का जाल फैला हुआ है। जिसका नियंत्रण सुषुम्ना नाड़ी द्वारा किया जाता है जो मूलाधार चक्र से सहस्रार चक्र तक पहुंचती है। सहस्रार चक्र का स्थान कपाल तंत्र में अन्य स्थानों के अपेक्षा अधिक संवेदनशील होता है। शिखा इस स्थान की रक्षा करती है और शरीर के तापमान का भी नियंत्रण करती है। यही कारण है कि वैदिक काल से मनुष्य शिखा धारण किए रहता है और शिखा बंधन हेतु मंत्र भी सृजित किया गया है।

चिद्रूपिणि! महामाये! दिव्यतेजः समन्विते तिष्ठ देवी! शिखामध्ये तेजोवृद्धिं कुरुष्व मे

जनेऊ धारण क्यों करें

सनातन धर्म मनुष्य की नैतिक, मानसिक, आध्यात्मिक विकास हेतु सात्विक गुणों के प्रस्फुटन के लिए शास्त्रों द्वारा निर्दिष्ट संस्कारों से संस्कारित करने की आवश्यकता प्रकट करता है। सनातन धर्म सोलह संस्कारों के द्वारा मनुष्य के दोषों को परिमार्जित कर धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन पुरुषार्थ हेतु योग्य बनाता है।

परंतु समय व्यतीत होने पर सोलह संस्कारों का अनुसरण किया जाना मात्र आडंबर बन चुका है। जबकि प्रत्येक संस्कार का वैज्ञानिक महत्व है। भगवान् मनु का कथन है

वैदिकैः कर्मभिः पुण्यैर्निषेकादिर्द्वजन्मनाम्

कार्यः शरीर संस्कारः पावनः प्रेत्य चेह च

वेदोक्त गर्भधानादि पुण्य कर्मों द्वारा द्विजगणों का शरीर संस्कार करना चाहिए। यह इस लोक और परलोक दोनों में पवित्र करने वाला है।

संस्कारों की श्रेणी में उपनयन संस्कार की ही सर्वोपरि महत्ता है। क्योंकि मान्यता है कि माता के गर्भ से मनुष्य का एक जन्म होता है और दूसरा जन्म होता है- उपनयन संस्कार से। उपनयन का अर्थ है पास या सन्निकट ले जाना। यह उप उपसर्ग पूर्वक 'नी' धातु से 'ल्यु' प्रत्यय करने पर निष्पन्न होता है। इसी कारण मनुष्य को द्विज अर्थात् दो बार जन्म लेने वाला कहा जाता है।

इसी संस्कार के अंतर्गत जनेऊ पहनी जाती है, जिसे 'यज्ञोपवीत संस्कार' भी कहते हैं। परंतु वर्तमान समय में जनेऊ पहनने का प्रचलन कम हो गया है। जबकि यह परम पवित्र, बल, तेज, आयु आदि बढ़ाने वाला है।

इसे धारण करते समय यह मंत्र पढ़ा जाता है।

ॐ यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं, प्रजापतेर्यत्सहजं पुरस्तात्

आयुष्यमग्रय्ं प्रतिमुंच शुभ्रं, यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेजः

ॐ यज्ञोपवीतमसि यज्ञस्य त्वां यज्ञोपवीतेनोपनस्यामि।

जनेऊ के विषय में कात्यायन स्मृति (१/४) में कहा गया है -

सदोपवीतिना भाव्यं सदा बद्धाशिखेन च

विशिखो व्युपवीतश्च यत् करोति न तत्कृतम्।

अर्थात् यज्ञोपवीत (जनेऊ) सदैव धारण करना चाहिए और शिखा में ओंकाररुपिणी ग्रन्थि बांधे रखनी चाहिए। शिखा-सूत्रविहीन होकर (जनेऊ और चोटि न रखकर) जो कुछ धर्म-कर्म किया जाता है, वह निष्फल होता है।

शरीर विज्ञान के अनुसार मध्य में वीर्य कोष है। यहां से निकालने वाली रक्तवाहिनी नाड़ी दाहिने कान से होते हुए शरीर के मलमूत्र द्वार तक जाती है। लघुशंका या शौच के समय दाएं कान पर जनेऊ लपेटने से अज्ञात रूप से वीर्य स्खलन रोककर शुक्राणुओं की रक्षा होती है। जनेऊ धारण करने से दुस्वप्न की समस्या का समाधान होता है। कान में जनेऊ लपेटने से सूर्य नाड़ी का जाग्रण, पेट संबंधी रोग एवं रक्तचाप की समस्या से भी बचाव होता है। जनेऊ धारण करने से विद्युत प्रवाह नियंत्रित रहता है जिस कारण काम-क्रोध पर नियंत्रण रखना आसान हो जाता है।

वस्तुतः सनातन धर्म इस प्रकार की अनेक वैज्ञानिक धारणाओं को संजोए हुए अनवरत मानव की रक्षा करता है। मनुष्य के मन में पल रहे दुर्व्यवहार, भ्रष्टाचार, एवं अन्य प्रकार की नकारात्मकता का शमन दमन करता है, मनुष्य की ऊर्जा को संचित करता है। ऊर्जा पुंज की विद्युत चुंबकत्वता बढ़ाता है और जीवन आरोग्य, दीर्घायु और शांति युक्त बनाता है। इस लेख में लेखक द्वारा वैज्ञानिकता युक्त सनातन धर्म में उपयुक्त विधान का विश्लेषण सीमित ज्ञान के आधार पर किया गया है। परंतु इसके उपरांत भी यह धर्म अपार संभावनाओं और अछूते रहस्यों से अभी भी पटा हुआ है, जिस हेतु निरंतर प्रयास किए जा सकते हैं।