भवान्यष्टकम्

भवान्यष्टकम्

भवान्यष्टकम्

न तातो न माता न बन्धुर्न दाता

न पुत्रो न पुत्री न भृत्यो न भर्ता।

न जाया न विद्या न वृत्तिर्ममैव

गतिस्त्वं गतिस्त्वं त्वमेका भवानि ।।

हे भवानि! पिता, माता, भाई, दाता, पुत्र, पुत्री, भृत्य, स्वामी, स्त्री, विद्या और वृत्ति-इनमें से कोई भी मेरा नहीं है, हे देवी! एकमात्र तुम्हीं मेरी गति हो, तुम्हीं मेरी गति हो।
भवाब्धावपारे महादु:खभीरु:
प्रपात प्रकामी प्रलोभी प्रमत्त: ।
कुसंसारपाशप्रबद्ध: सदाहं
गतिस्त्वं गतिस्त्वं त्वमेका भवानि ।।
मैं अपार भवसागर में पड़ा हुआ हूं, महान् दु:खों से भयभीत हूं, कामी, लोभी, मतवाला और घृणायोग्य संसार के बंधनों में बंधा हुआ हूं, हे भवानी! अब एकमात्र तुम्हीं मेरी गति हो।
न जानामि दानं न च ध्यानयोगं
न जानामि तन्त्रं न च स्तोत्रमन्त्रम् ।
न जानामि पूजां न च न्यासयोगम् 
गतिस्त्वं गतिस्त्वं त्वमेका भवानि ।।
हे देवी! मैं न तो दान देना जानता हूं और न ध्यानमार्ग का ही मुझे पता है, तन्त्र और स्तोत्र-मन्त्रों का भी मुझे ज्ञान नहीं है, पूजा तथा न्यास आदि की क्रियाओं से तो मैं एकदम कोरा हूं अब एकमात्र तुम्हीं मेरी गति हो।
 
न जानामि पुण्यं न जानामि तीर्थं 
न जानामि मुक्तिं लयं वा कदाचित् ।
न जानामि भक्तिं व्रतं वापिस मातः
गतिस्त्वं गतिस्त्वं त्वमेका भवानि ।।
न पुण्य जानता हूं न तीर्थ, न मुक्ति का पता है ना लायका। हे माताः! भक्ति और व्रत भी मुझे ज्ञात नहीं है, हे भवानी! अब केवल तुम्हीं मेरा सहारा हो।
कुकर्मी कुसंगी कुबुद्धि: कुदास:
कुलाचारहीनः कदाचारलीनः ।
कुदृष्टि: कुवाक्यप्रबन्ध: सदाहम्
गतिस्त्वं गतिस्त्वं त्वमेका भवानि ।।
मैं कुकर्मी, बुरी संगति में रहने वाला, दुर्बुद्धि, दुष्टदास, कुलोचित शादाचार से हीन, दुराचार परायण, कुत्सित दृष्टि रखने वाला और सदा दुर्वचन बोलने वाला हूं, हे भवानि! मुझ अधमकी एकमात्र तुम्हीं गति हो।
प्रजेशं रमेशं महेशं सुरेशं
दिनेशं निशीथेश्वरं वा कदाचित्
न जानामि चान्यत् सदाहं शरण्ये
गतिस्त्वं गतिस्त्वं त्वमेका भवानि ।।
 
मैं ब्रह्मा, विष्णु, शिव, इंद्र, सूर्य, चंद्रमा तथा अन्य किसी भी देवता को नहीं जानता, हे शरण देने वाली भवानि! एकमात्र तुम्हीं मेरी गति हो।
 विवादे विषादे प्रमादे प्रवासे
जले चानले पर्वते शत्रुमध्ये।
अरण्ये शरण्ये सदा मां प्रपाहि
गतिस्त्वं गतिस्त्वं त्वमेका भवानि ।।
हे शरण्ये! तुम विवाद, विषाद, प्रमाद, परदेश, जल, अनल, पर्वत, वन तथा शत्रुओं के मध्य में सदा ही मेरी रक्षा करो, हे भवानी! एकमात्र तुम्हीं मेरी गति हो।
अनाथो दरिद्रो जरारोगयुक्तो
महाक्षीणदीन: सदा जाड्यवकत्र: 
विपत्तौ प्रविष्ट: प्रणष्ट: सदाहं
गतिस्त्वं गतिस्त्वं त्वमेका भवानि ।।
 
हे भवानि! मैं सदा से ही अनाथ, दरिद्र, जरा-जीर्ण, रोगी, अत्यंत दुर्बल, दीन, गूंगा, विपद्ग्रस्त और नष्ट हूं, अब तुम्हीं एकमात्र मेरी गति हो।
 
इति श्री मच्छंकराचार्यकृतं भवान्यष्टकं सम्पूर्णम्