आस्था के आयाम: बाबा गणमेश्वर (गढ़वालिंग), पिथौरागढ़, उत्तराखण्ड

आस्था के आयाम: बाबा गणमेश्वर (गढ़वालिंग), पिथौरागढ़, उत्तराखण्ड

अन्यान्य राष्ट्रों के लिए धर्म, संसार के अनेक कृत्यों में एक धंधा मात्र है। परंतु यहां भारतवर्ष में मनुष्य की सारी चेष्टाऐं धर्म के लिए हैं। धर्म ही जीवन का एकमात्र उपाय है......१
हिंदुओं के साथ धर्म, ईश्वर, आत्मा, अनंत और मुक्ति के संबंध में बातें कीजिए। मैं आपको विश्वास दिलाता हूं अन्यान्य देशों के दार्शनिक कहे जाने वाले व्यक्तियों की अपेक्षा यहां का एक साधारण कृषक भी इन विषयों में अधिक जानकारी रखता है.....२
.........स्वामी विवेकानंद (१६ जनवरी १८९७ को फ्लोरल हॉल, कोलंबो)

'संस्कृति' समाज विशेष की पृथक पहचान व विशिष्टता को एक निश्चित रुप स्वरुप प्रदान करती है। ऐतिहासिक, भौगोलिक व आंचलिक मान्यताएं धर्म, दर्शन आध्यात्मिक परंपराएं और राजनीतिक व सामाजिक संस्थाएं, संस्कृति के प्रमुख अवयव हैं जो उसकी विशिष्टता के आधार हैं। ये अवयव समय के साथ परिवर्तित व परिवर्धित होते रहते हैं, लेकिन मौलिकता को किसी न किसी रूप में समेटे रहते हैं। किसी भी समाज का ऐतिहासिक व सामाजिक अध्ययन उसकी संस्कृति के विविध चरणों में उसके स्वरूप की विवेचना करने में सहायक होता है। किसी भी संस्कृति में धार्मिक आस्था उसके सामाजिक व्यवस्था का आधार स्तंभ होता है। भारतीय संस्कृति अपनी धार्मिक मान्यताओं, देवी-देवताओं के प्रति अगाध श्रद्धा व विश्वास के साथ विश्व की अन्य संस्कृतियों से अपनी पृथक पहचान के लिए जानी जाती है। धार्मिक ग्रंथों, पुराणों, वेदों में ३३ करोड़ देवी देवताओं की मान्यता हिंदू धर्म की धार्मिक आस्था की विशालता के साथ अनेकता में एकता की उत्कृष्ट मिसाल है जो विश्व की अन्य धार्मिक मान्यताओं से उसकी पृथक पहचान बनाती है।

हिमालय प्रदेश की संस्कृतियों में उत्तराखंडी संस्कृति की अपनी विशेषता है। ऋषियों, मुनियों व विद्वानों द्वारा इसे भारतीय संस्कृति की आत्मा माना है। उत्तराखण्डी संस्कृति के विविध आयामों के गहन अध्ययन के आधार पर मनीषियों द्वारा इसे भारतीय संस्कृति का लघु संस्करण कहा गया है।

ऐसी विशालता समेटे उत्तराखण्डी संस्कृति की अपनी पृथक धार्मिक मान्यताएं और पूजा-अर्चना पद्धतियां हैं, ३३ करोड़ देवी-देवताओं की मान्यताओं की स्पष्ट झलक उत्तराखंड में विद्यमान है। उत्तराखण्ड का शायद ही कोई परिवार हो जिसका कोई कुल देवता या देवी ना होता होगा। उत्तराखण्डी समाज पर घात (अहंकार) तथा भूत-प्रेत बाधा को दूर करने के लिए रखवाली (रक्षोपचार) का आज भी बड़ा प्रभाव है। सुशिक्षित व उच्च पदों पर विराजमान 'पहाड़ी' आपत्ति एवं रोग ग्रस्तता होने पर चुपके से गांव में आकर क्षेत्रीय देवी-देवताओं की पूजा अर्चना करते देखा जा सकता है। उत्तराखण्डी धर्म का यह विशिष्ट पहलू आज भी अपनी सक्षमता से जीवंत है।
उत्तराखंड के कुमाऊं अंचल में क्षेत्रीय देवी-देवताओं की अपनी विशिष्ट परंपरा है। इनमें कुछ देवता नैवेद्य अन्य, पुष्प आदि से प्रसन्न हो जाते हैं, तो कुछ के लिए बलि अनिवार्य होती है। कुछ देवी-देवता सदा सहायक कुशलक्षेम व न्याय देने वाले होते हैं, कुछ डरा, धमकाने, बाधा व कष्ट देने वाले होते हैं। कुछ राजंशी तो कुछ भूतांगी होते हैं। इन सभी से कोई ना कोई गाथा जुड़ी रहती है।
कुमाऊं अंचल में भूमियां, भूमि का रखवाला, देवता के मंदिर प्रत्येक गांव में देखे जा सकते हैं। जिसकी अन्य आदि से पूजा की जाती है। चितई, में स्थित गोलू के प्रसिद्ध मंदिर के देवता न्याय-देवता के तौर पर प्रसिद्ध हैं। इसके अतिरिक्त गंगनाथ, भोलानाथ, भलैनाथ, हरु-सैम, कलबिष्ट, थौमू, बधाण, नौल-दानू, भागालिंग, हुस्कर, बालचिन, कालविन, छुरमल (सूर्यमल), बजैण, नारसिंह, कलुवा, सिदुवा-बिदुवा, एड़ी, मसाण, खबीस, रुनिया, छोड़ौज देव, वैद्यनाथ, सिद्ध, मानैनाथ चौरंगीनाथ, लाटो, बालेभील आदि स्थानीय देवताओं के अतिरिक्त देवियों में- गढ़देवी (न्याय की देवी, कोट की कोटगाड़ी, परियां तथा आंचरियां, नंदा देवी, बाराही देवी, हाटकाली, त्रिपुरा देवी, शीतला देवी, उल्का देवी, धुर्का देवी, झूला देवी, भगवती देवी, जयंती देवी आदि) की पूजा इस अंचल के विभिन्न क्षेत्रों में की जाती है।

कुमाऊं अंचल के काली नदी के तालेश्वर, झूलाघाट हल्दु से होते हुए टनकपुर में मां पूर्णागिरि के मंदिर तक के क्षेत्रीय-सामाजिक जीवन में देवी-देवताओं का उल्लेख कम मिलता है। यह दुरूह भौगौलिक अंचल अपने में अपनी रक्षोपचार व देवीय न्यायिक पद्धति की मान्यताएं समेटे हैं। इस अंचल में क्षत्रीय स्तर पर रतौड़िया (तालेश्वर), लाटो भरगांणा (मेल्टी नाथ), गणमेश्वर (गढ़वालिंग), द्योगड़िया (दोगड़िया), चौमूं, थल केदार आदि की अपनी मान्यता बड़ी श्रद्धा व विश्वास के साथ विद्यमान है। इस पूरे अंचल में नेपाल जो एक हिंदू राष्ट्र है में, हिंदू दर्शन पूजा अर्चना आदि का प्रभाव स्पष्ट रूप से देखने को मिलता है। यहां तक क्षेत्र में स्थित देवी-देवताओं की पूजा-अर्चना दोनों देशों के लोगों द्वारा एक साथ सम्मिलित रूप से की जाती है । इस अंचल के लोकधर्म में आज भी हिंदू धर्म के पारंपरिक कठोर मान्यताओं व सांस्कृतिक पूजा पद्धतियों की स्पष्ट छाप विद्यमान है। इस अंचल के लोकधर्म में गणमेश्वर (गढ़वालिंग), जो साक्षात शिव माने गए हैं, के अतिरिक्त इनके शिष्य द्योगड़िया (दोगड़िया) जो न्याय के देवता और असीम शक्ति के स्वामी माने जाते हैं, की अत्यधिक मान्यता है। गणमेश्वर, द्योगड़िया (दोगड़िया) के संबंध में जो लोककथा प्रचलित है वह इस प्रकार है-

रूमा व बेन्नी ग्राम जो शकुन ग्रामसभा, सौन पट्टी मूनाकोट ब्लॉक के अंतर्गत है, से कोई तीन किलोमीटर दूर काली नदी के तट पर, जहां नदी नेपाल की तरफ गोलाई में बहती है, नेपाल से एक नाला कर मिलता है। इस स्थान में नेपाल की तरफ एक सरोवर है, जिसे देवताल या सतजुगी (सतयुगी) ताल कहा जाता है। प्रचलित मान्यता के अनुसार इसकी उत्पत्ति सतयुग में मानी गई है। इसमें स्नान वर्जित है। इससे लगी एक गुफा है, जिसके अंदर एक लिंग है जिसे त्रिलोकीनाथ गणमेश्वर का लिंग माना जाता है। यही स्थान 'गढ़वालिंग' महाराज का मूल मंदिर है। यह मंदिर नेपाल के रोड़ी रंतौली व भारत के सौन पट्टी के अतिरिक्त पिथौरागढ़ जिला निवासियों का आराध्य स्थान है। बाबा गणमेश्वर के इसके अतिरिक्त ४ मंदिर तीन नेपाल व १ भारतीय क्षेत्र में स्थित है। इन मंदिरों के बारे में प्रचलित लोक कथा इस प्रकार है-

कालांतर में हिमाल से मां भगवती की जात डोला अपने गणों के साथ काली नदी से होकर तराई भाबर की ओर जा रहा था। उनके द्वारा कहा गया कि अगर कोई मुझे रोक सकने में सक्षम है तो रोके! उनके प्रस्ताव को बाबा गणमेश्वर ने स्वीकारा और विशाल आकृति ग्रहण कर डोले को रोक लिया। उनकी विशाल आकृति का आंकलन इस प्रकार किया जाता है- उन्होंने अपने चरण देवताल में स्थिर के सिर चमड़ामाणु (तोली, नेपाल) धड़ का भाग बिजुल (नेपाल), दांया हाथ रूम (भारत), बांया हाथ बन्ना (नेपाल) तक फैला दिये थे। गणमेश्वर महाराज ने भगवती जांत को रोका तो मां ने किसी रमणीक स्थान पर स्थापना की इच्छा प्रकट की जिसके फलस्वरुप गणमेश्वर महाराज ने उनको, रोड़ी जो नैपाल क्षेत्र में स्थित है, एक रमणीक स्थल पर स्थापित किया। यहां पर दुर्गा अष्टमी के दिन प्रसिद्ध मेला लगता है जिसमें भारतीय क्षेत्र के लोग भी हिस्सेदारी करते हैं। जहां-जहां तक विशाल आकृति के अंग फैले थे वहां पर 'फुटलिंग' प्रकट हुए। फुटलिंग से तात्पर्य है धरती से प्रकट लिंग। इन स्थानों पर मंदिर स्थापित किए गए। इनको तांबे के ढक्कन से ढक कर रखा जाता है, पुजारी द्वारा पूजा के दौरान इसकी सफाई करने के बाद पुनः ढक कर रखा जाता है। गणमेश्वर सदा सहायक व कुशल क्षेम के देवता माने जाते हैं। जिन्हें कष्ट निवारण दाता के रूप में पूजा जाता है। प्राचीन समय में इस अंचल में धरभाषा-हल्दू का लटाधारी मसाण का आतंक था जो सुनसान, निर्जन, नदी नालों में विचरण करता पशुओं का वध करने के साथ ही यहां के निवासियों को भांति-भांति से सताता था। क्षेत्र की जनता ने आतंकित व दुखी होकर गणमेश्वर को पुकारा। गणमेश्वर बाबा ने हल्दू में घमासान संघर्ष के बाद बलशाली मसाण को परास्त किया। लटाधारी मसाण ने मरने से पूर्व अपने पुत्र के लिए अभय दान मांगते हुए उसे 'गोद' लेने की विनती की। मसाण पुत्र भी काफी बलशाली था। गणमेश्वर बाबा ने लटाधारी मसाण की इच्छा अनुसार द्योगड़िया को न्याय के देवता का वरदान देते हुए सात जंजीरों से बांधकर देवताल में अपने चरणों में रख लिया। जंजीरों से बांधकर रहने के कारण के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने उसको स्वच्छन्द बनने से रोकने के लिए ऐसा किया तब से मसाण पुत्र न्याय की पुकार होने पर होने पर अपने गुरु (गणमेश्वर) की आज्ञा पर अपनी प्रजा में प्रकट होकर न्याय करते हैं। उस अंचल में प्रचलित लोक मान्यताओं में १२ मसाणों का जिक्र आता है जिसमें द्योगड़िया को १२ मसाणों के मसाण अर्थात् महाबली के रूप में मान्यता है।
बाबा द्योगड़िया की न्याय के देवता के रूप में मान्यता स्थानीय स्तर पर मान्यता प्राप्त पूछ या गंत पद्धति से देखी जा सकती है। वर्तमान में इसका धामी या डंगरिया, ग्राम बेन्नी, सौनी पट्टी मूनाकोट विकासखंड पिथौरागढ़ में "पूछ" कार्य करता है। इस ग्राम तक पिथौरागढ़ से वाहन आदि से वड्डा होते हुए अड़किनी जाया जाता है जहां ७-८ किलोमीटर के पैदल मार्ग से वहां पहुंचा जा सकता है। इस स्थल पर सर्वथा पूछ कर्त्ताओं का ताता लगा रहता है। भीड़ का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि पूछ के लिए तीन-चार दिन का इंतजार सामान्य बात है। कभी-कभी तो १०-१५ दिन तक इंतजार करना पड़ता है। निःसंदेह उस स्थल पर जाने के बाद लगता है, उत्तराखंड देव भूमि है। जहां आज भी लोगों में देवी-देवताओं के प्रति अगाध श्रद्धा है बाबा द्योगड़िया की न्याय शक्ति ही नहीं बल्कि कहा जाता है सच्चे हृदय से मनौती मांगने वाले असहाय को भी सदा सुनते हैं। इतना ही नहीं क्षेत्र में ऐसे कई परिवार हैं जिन्हें संतान प्राप्ति भी हुई है। ऐसे लोग संतान प्राप्ति के १० वर्षो के अंदर बालक/ बालिका की मुंडन की पहली जटाओं को देवताल में काटते हैं, पूजा अर्चना के बाद।
उत्तरायणी के अवसर पर देवताल में मेला लगता है जहां नेपाल और भारत दोनों जगह से लोग आते हैं पूजा अर्चना करते हैं। इसके अतिरिक्त इस स्थल पर और 'औरात' अर्थात रात्रि पूजा आदि का आम प्रचलन है।
बाबा द्योगड़िया की‌ न सिर्फ न्यायकारी दूध का दूध पानी का पानी करने वाले वरदानी के रूप में असीम श्रद्धा प्राप्त है। जिसके दरबार में सभी धर्मों, जातियों व गरीब-अमीर को समान रूप से देखा जाता है। कुमाऊं अंचल में न्यायकारी व वरदानी शक्तियों की अपनी एक परंपरा है। उसी परंपरा में बाबा द्योगड़िया का भी अपना एक विशिष्ट स्थान है।



प्रो0 नरेन्द्र सिंह भण्डारी
मा0 कुलपति, एस0एस0जे0 विश्वविद्यालय, अल्मोड़ा, उत्तराखण्ड