कुमाऊँ में होली का महत्व

कुमाऊँ में होली का महत्व

होली पर विशेष .....

भारतवर्ष त्यौहारों का देश है। यहॉ हर एक त्यौहार का अपना एक सांस्कृतिक, आध्यात्मिक एवं सामाजिक महत्व है। इन सारे त्योहारों में होली ही एक ऐसा त्यौहार है जो पौराणिक, ऐतिहासिक, सांस्कृतिक के साथ-साथ आमोद-प्रमोद के लिए मनाया जाने वाला खुशियों का त्यौहार है। पुराने गिले-शिकवे भुला कर एक दूसरे के रंग में रंग जाने, हर्ष और उल्लास से एक दूसरे को आपस में सौहार्द एवं खुशियों के रंग लगाने के अनूठे दृश्य इस त्यौहार में मन को ही नहीं माहौल को भी खुशनुमा बनाते हैं। केवल रंगों से ही नहीं नृत्य, गान, ढोलक, मंजीरा एवं अन्य संगीत वाद्य यंत्रों को बजाकर लोग मनोरंजन करते हैं।

पौराणिक मान्यताओं की रोशनी में होली के त्यौहार का विराट समायोजन बदलते परिवेश में विविधताओं का संगम बन गया है। इस अवसर पर रंग, गुलाल डालकर अपने इष्ट मित्रों को प्रिय जनों को सरोबार करने की परंपरा है जो वर्षों से चली आ रही है। यह पर्व सबका मन मोह लेता है। जहां भगवान और भक्त एकाकार होते हैं। उनके बीच वात्सल्य का रस प्रवाहित होता है। होली का पावन त्यौहार एक प्राचीन भारतीय त्यौहार है। होली का पर्व फाल्गुन माह की पूर्णिमा को मनाया जाता है।

इस पर्व के विषय में सर्वाधिक प्रसिद्ध कथा दैत्यराज प्रह्लाद एवं होलिका के संबंध में है। नारद पुराण में इसका उल्लेख मिलता है कि दैत्यराज हिरण्यकश्यपु भगवान विष्णु का घोर विरोधी था, लेकिन उसका पुत्र प्रह्लाद विष्णु भक्त था। इससे नाराज होकर हिरण्यकश्यपु ने प्रह्लाद को विष्णु भक्ति से दूर करने के लिए अनेक प्रताड़नायें दी, लेकिन भगवान् के आशीर्वाद से प्रह्लाद को कुछ भी हानि नहीं होती थी। इस पर हिरण्यकश्यपु की एक बहन थी जिसका नाम होलिका था। उसे वरदान प्राप्त था कि उसे अग्नि नहीं जला पाएगी इसी का विचार कर होलिका ने अपने भाई को सुझाव दिया कि वह प्रह्लाद को गोद में बैठाकर अग्नि में प्रवेश करेगी जिससे वह तो नहीं जल सकती लेकिन प्रह्लाद जलकर खत्म हो जाएगा। लेकिन होलिका के अग्नि में प्रवेश करने पर होलिका जल गई तथा भगवान की कृपा से प्रह्लाद को कुछ भी नहीं हुआ। तभी से आज के दिन भी होलिका दहन की परंपरा चली आ रही है।

कुमाऊँ क्षेत्र में होली का त्योहार एक अलग तरह से मनाया जाता है। जिसे कुमाऊनी होली कहते हैं। यहां होली के तीन प्रारूप हैं - बैठकी होली, खड़ी होली, एवं महिला होली।

बैठकी होली - कुमाऊँ में पौष माह के प्रथम रविवार से प्रारंभ होकर फाल्गुन माह की पूर्णिमा तक गाई जाती है। पौष से बसंत पंचमी तक आध्यात्मिक, पंचमी से शिवरात्रि तक अर्थ श्रृंगारिक तथा उसके बाद श्रृंगार रस में डूबी होलियां गाई जाती हैं। इनमें भक्ति, वैराग्य, विरह, कृष्ण गोपियों की हंसी-ठिठोली, प्रेमी-प्रेमिका की अनबन, देवर भाभी की छेड़छाड़ सभी रस शामिल रहते हैं।
खड़ी होली- इसे गाने का एक अलग ही अंदाज है इसे समूह में गाया जाता है। जिसे ढोल, मंजीरा के साथ गोल घेरे में पग संचालन और भाव प्रदर्शन के साथ गाया जाता है। काली कुमाऊँ में होली गायन की विशेष परंपरा है जो एकादशी से प्रारंभ होकर पूर्णिमा तक चलती है। होली गायकों को कुमाऊँ में होल्यार कहा जाता है। इस दौरान होल्यार गांव के प्रत्येक घर जाकर होली गायन करते हैं तथा रात्रि में गांव के एक आंगन अथवा सार्वजनिक स्थल पर एक ओर से पुरुष तथा एक ओर से महिलाएं मिलकर गोल घेरे में पैर से पैर मिलाकर होली गायन करते हैं तत्पश्चात् प्रतिपदा को छलडी का कार्यक्रम होता है जिसमें होल्यार प्रत्येक घर जाकर आशीर्वचन देते हैं तथा अगली होली में मिलने का संकल्प करते हैं।
महिला होली- वर्तमान समय में महिलाएं भी होली को अलग अंदाज में मनाने लगी है वह स्वॉग आदि के द्वारा वर्तमान सामाजिक एवं राजनैतिक परिवेश को दर्शाने का कार्य कर रही हैं। महिला होलियों में स्वांग सर्वाधिक प्रचलित है। इसमें महिलाएं खासकर घर के पुरुषों, सास-ससुर आदि के मर्दाना कपड़े, मूंछ और चश्मा आदि पहन कर उनकी नक़ल उतारती हैं तथा इसी बहाने वह सामाजिक एवं राजनीतिक बुराइयों पर भी चुटीले कटाक्ष करती हैं।

सामान्यतया खड़ी होलियॉ कुमाऊँ की लोक परंपरा के अधिक निकट मानी जाती हैं, जिसके तहत कुमाऊँ में चीर व निशान बंधन की भी अलग विशिष्ट परंपराएं हैं। इनका कुमाऊँ की होली में विशेष महत्व माना जाता है। गांव में एक सार्वजनिक स्थान पर एकादशी पर शुभ मुहूर्त देखकर चीर बंधन किया जाता है। इसके लिए गांव के प्रत्येक घर से नए कपड़े के रंग बिरंगे टुकड़े चीर के रूप में एक बाँस के गोलाकार लकड़ी पर, जिसे लट्ठे पर रोका जाता है, बाँधे जाते हैं। कुमाऊँ में चीरहरण का भी प्रचलन है जिसके लिए चीर बंधन के स्थान को खाली नहीं छोड़ते ताकि दूसरे गांव के लोग चीर का हरण न कर सके। क्योंकि मान्यता है कि जिस गांव का चीर हरण हो गया उस गांव में फिर चीर बंधन नहीं होगा।

चीर बंधन PC: Mrs. Deepika Joshi

अंत में सभी घरों में होली गायन के पश्चात् घर के सबसे बड़े सदस्य का नाम लेकर घर के मालिक जीवैं लाख सौ बरीस.....
कह कर आशीष देने की भी यहां अनूठी परंपरा है.....
बरस दिवाली बरसै फाग.......
जो नर जीवै खेले फाग .......


लेखक: श्री जगदीश जोशी, अल्मोड़ा, उत्तराखण्ड

कुमाऊनी बैठक होली (Classical Holi)