परम शिवावतार हैड़ाखान बाबाजी: भाग 1

परम शिवावतार हैड़ाखान बाबाजी: भाग 1

Courtesy: (Immortal Babaji. &. His Lilas. By K.L. Jand.)
सौजन्य से: इम्मॉर्टल बाबाजी एन्ड हिज लीलाज द्वारा के एल जंद 
 

ओम नमः शिवाय 

 

भारत हमेशा से ही दिव्य विभूतियों और सनातन धर्म-अध्यात्म को विश्वस्तर पर पहचान दिलाने वाली पवित्र भूमि रहा है।  समय समय पर अनेक साधु-सन्यासियों ने कठिन तपस्या से सिद्धियां प्राप्त की और वह जनमानस में प्रसिद्ध हो गए।  ऐसी दिव्य आत्माओं में हैड़ाखान बाबा का नाम बड़ी ही श्रद्धा और आस्था के साथ लिया जाता है।  भक्त बड़े श्रद्धाभाव से उन्हें भोले बाबाजी, त्रयम्बक बाबा, महामुनीन्द्र, अवधूत बाबा और महावतार बाबा के नाम से भी जानते है।  उनका प्राकट्य उत्तराखंड में नैनीताल जिले के एक गांव हैड़ाखान  के पास हुआ इसी नाम से हैड़ाखान बाबा कहा जाने लगा।

बात वर्ष 1800 की है, पहाड़ी क्षेत्र कुमाऊँ में नैनीताल के समीप घने जंगलों में एक अज्ञात नाम के गाँव के लोगों ने एक दिव्य प्रकाश पुंज को देखा, यह प्रकाश पहाड़ के ऊपर कुछ समय तक रहता फिर गायब हो जाता।  ऐसा कई दिनों तक होता रहा और अंततः गांव के लोगों ने प्रकाश पुंज को दिव्य संकेत जानकार उसी पहाड़ी स्थान पर जाकर अर्चना की। वह ज्योति पुनः प्रकट हुई और उसमें से एक 20 साल के दिव्य युवक का स्वरूप प्रकट हुआ। गांव वालों ने युवक से उनके गांव आने की प्रार्थना की और युवक एक फारेस्ट गार्ड के घर में रहने लगे। ग्रामीण भक्त उन्हें अवधूत बुलाने लगे, फारेस्ट गार्ड जब अपनी ड्यूटी पर जाते तो उन्हें कमरे में बंद करके जात।  एक दिन ग्रामीण वासियों ने कमरे का दरवाज़ा तोड़ दिया और ज्योंही वह अंदर घुसे तो योगी को वहां न पाकर उन्हें अचम्भा हुआ।

कुछ समय बाद वह योगी बाबा जी कैलाश पर्वत की तलहटी में भीमताल के पास हैड़ाखान नामक गांव के पास गौतमी-गंगा (जिसे वर्तमान में गौला नदी कहा जाता है), के तट पर एक गुफा में पुनः प्रकट हुए।  यहाँ गांव और कैलाश पर्वत गौला नदी के आमने-सामने बसे हैं। हैड़ाखान  बाबाजी ने गुफा के ठीक सामने नदी के उस पार मंदिर और आश्रम का निर्माण करवाया। यह मंदिर अष्टकोणीय आकृति में बना है। हैड़ाखान गांव के बुजुर्ग लोग अपने माता-पिता के द्वारा बताई गई कहानी के आधार पर बताते हैं कि कैसे बाबा जी ने एक पत्थर की चट्टान पर निशान बनाकर कामगारों को उससे एक पत्थर की चौड़ी पट्टी निकाल लेने को कहा था। बाबाजी ने स्वयं भी मंदिर के निर्माण में सहयोग किया।
इस मंदिर में बाबाजी ने भगवान शिव की तीन-मुखी प्रतिमा व शिवलिंग की स्थापना की।  कुछ अन्य भक्त बताते हैं कि उन्हें यहाँ सांस लेने जैसी आवाज़ें  सुनाई देती हैं, उनका विश्वास है कि यह स्वयं बाबाजी ही हैं।
1861 में पतझड़ के मौसम में एक अद्भुत घटना घटी ब्रितानी हुकूमत की मिलिट्री इंजीनियरिंग सर्विसेज में अकाउंटेंट श्याम चरण लाहिरी को बाबाजी ने दर्शन दिए और उन्हें क्रिया योग के लिए प्रेरित किय।  बाबाजी ने लाहिरी जी को उनके पूर्वजन्म संस्मरण याद दिलाये जब वह उनके शिष्य थे। बाद में लाहिरी जी ने सिद्ध योग से कई सिद्धियां प्राप्त की और बनारस में लाहिरी महाशय के नाम से ख्याति प्राप्त की। वर्ष 1946 में परमहंस योगानंद ने अपनी आत्मकथा 'एक योगी की आत्मकथा' में हैड़ाखान बाबा और लाहिरी महाशय के द्वारा की गई चमत्कारिक लीलालों का वर्णन किया  है। परमहंस योगानंद, युक्तेश्वरगिरि के शिष्य रहे जो लाहिरी महाशय के शिष्य थे। बाबाजी ने अपने शिष्यों को अपनी शक्तियों से परिचित करवाया। उन्होंने योगिक शक्तियों से कई लोगों को एक साथ अलग अलग जगहों पर दर्शन दिए, मृत व्यक्ति को जीवनदान दिया, सूर्य की तरह तेज दिखाया और पानी से हवन करने जैसी कई अद्भुत लीलाएं की।हैड़ाखान बाबा कभी भी लगातार एक जगह नहीं रहे।  उन्होंने कई आश्रम (चिलियानौला रानीखेत, खुर्पाताल, कठघरिया और सिद्धाश्रम शीतलाखेत) बनवाए।  बाबाजी द्वारा की जाने वाली पंचाग्नि तपस्या को देखकर भक्तजन दांतों तले अंगुली दबाते थे, इस योगिक क्रिया में बाबा अग्नि के भीतर प्रवेश कर उसमें घंटों बैठे रहते थे।  भक्तों ने कभी उन्हें भोजन करते नहीं देखा, कभी कभी तो बाबाजी महीनों तक सोते भी नहीं थे।

बाबाजी वर्ष 1922 में बाबाजी कैलाश यात्रा के लिए गए और लौटने पर उत्तराखंड नेपाल बॉर्डर पर अस्कोट नामक जगह राजा कर्मण सिंह के मेहमान बनकर रुके।  कुछ समय बाद बाबाजी ने चलने की इच्छा जाहिर कि वह राजा द्वारा भेंट की गई पालकी में यात्रा हेतु निकाल ग।  कुछ दूर चलने पर राजा को वापस जाने का आग्रह किया और कुछ शाही लोगों के साथ आगे की यात्रा के लिए निकाल पड़े।  अपनी यात्रा में जैसी ही बाबाजी सीमा पर काली और गोरी नदी के संगम स्थल पर पहुंचे उन्होंने पद्मासन में नदी के भीतर प्रवेश किया और सभी लोगों की मौजूदगी में गायब हो गए। जाते जाते उन्होंने मानव कल्याण के लिए पुनः अवतार लेने का लोगों को आश्वासन दिया।

वैसे तो बाबाजी लोकजीवन से विदा ले चुके थे किन्तु 1950 से 1962 के बीच उन्होंने कई बार अपने अनुयायियों और भक्तों को दर्शन दिए।

गायब होने के कुछ वर्षों पश्चात हैड़ाखान के पास ओखलढुंगा में एक शिक्षक श्री राम सिंह को बाबाजी ने 1963 में दर्शन दिए और उसके बाद  नित्य हर सप्ताह राम सिंह बाबाजी के दर्शन करने जाते।  यह सिलसिला 1970 तक बाबाजी के हैड़ाखान में पुनः प्रकट होने तक चलता रहा। 1968 -1969 की अवधि में बाबाजी ने अस्वस्थ चल रहे सूर्य देवी बाबाजी के आश्रम में रहकर उनकी सेवा की।

बाबाजी के अंतर्ध्यान (अचानक गायब) होने के बाद एक सिद्ध योगी काफी चर्चा में आये इनका नाम महेंद्र महाराज थ।  महेंद्र महाराज दरभंगा बिहार के एक छोटे से गांव मनिका में पैदा हुए।  इनके पांच वर्ष पूर्ण होने पर एक सिद्ध सन्यासी महात्मा ने बालक महेंद्र जी को दर्शन देकर प्रसाद में लड्डू दिया। महेंद्र महाराज किशोरावस्था तक उस सन्यासी को ही याद किया करते और उनकी प्रार्थना करते। व्यस्क होने पर इन्होंने घर को त्याग दिया और उन महात्मा की खोज में निकल गए। किसी तरह महेंद्र जी को खोजा गया और उन्हें घर लिवा लाए। महेंद्र जी ने भागलपुर यूनिवर्सिटी से परास्नातक की उपाधि प्राप्त की। इसके बाद उन्होंने सदा के लिए गृहस्थ जीवन को सदा के लिए त्याग दिया और सम्पूर्ण भारत की नंगे पाँव यात्रा की। इन्होंने कभी भिक्षा नहीं ली अतः इन्हें दक्षिण भारत के प्रवास पर अत्यंत कठिनाइयों का सामना करना पड़ा।

फिर गुजरात में अम्बाजी आकर इन्हें उस सन्यासी महात्मा के सन्दर्भ में एक दिव्य सन्देश प्राप्त हुआ और यह अल्मोड़ा चले आए।  महेंद्र महाराज जी ने पुरे अल्मोड़ा जिले में उस महात्मा की खोज की और अंततः उन्हें हैड़ाखान बाबाजी का चित्र दिखाया गया जोकि वही सन्यासी महात्मा थे जिन्होंने महेंद्र महाराज जी को वर्षों पूर्व दर्शन दिए।
हैड़ाखान बाबाजी को अपना गुरु जानकार 1949 में महेंद्र महाराज जी ने सिद्धाश्रम में जाकर अपना ध्यान आरम्भ किया। उन्होंने स्वयं को एक कमरे में बंद कर लिया और कहा जब तक हैड़ाखान बाबाजी उनसे नहीं मिलते तब तक वह अपनी तपस्या नहीं छोड़ेंगे। एक दिन हैड़ाखान बाबाजी ने इन्हें दर्शन देकर इनकी इच्छा शांत की और इन्हें भविष्य के लिए दिशा-निर्देश दिए।इसके उपरांत महेंद्र महाराज जी वृन्दावन चले आए और 'साम्ब सदा शिव कुञ्ज' आश्रम का निर्माण करवाया।
वर्ष 1957 में शिवरात्रि पर्व के उपरान्त महेंद्र महाराज जी ने कठघरिया आश्रम स्थित मंदिर में हैड़ाखान बाबाजी की एक मूर्ति का निर्माण कराया और उसकी प्राणप्रतिष्ठा समारोह से एक दिन पूर्व रात में कीर्तन के दौरान एक प्रकाश-पुंज भक्तों को दिखा जिसमें हैड़ाखान बाबाजी ने कुर्ता और टोपी में दर्शन दिए और उसके कुछ क्षण बाद वह प्रकाश-पुंज उस मूर्ति में प्रवेश कर गई। अगले दिन विधिवत रूप से हैड़ाखान बाबाजी की मूर्ति की प्राणप्रतिष्ठा की गई। वर्तमान में यह मूर्ति वृन्दावन आश्रम में स्थापित है।
इस दौरान इनके कई अनुयायी बन गए जिनमें पूर्व में हैड़ाखान बाबाजी के भक्त भी थे। महेंद्र महाराज भी अपनी आध्यात्मिक शक्तियों के लिए भक्तों और शिष्यों के बीच प्रसिद्द रहे। महेंद्र महाराज स्वयं को 'चरणाश्रित बाबा' कहते थे, जिसका मतलब हैड़ाखान बाबाजी के सेवक होता है।   हैड़ाखान बाबाजी के पुनः अवतार लेने की भविष्यवाणी इन्होनें ही थी। महेंद्र महाराज ने लोगों को बताया कि बाबाजी स्वयं सदा शिव हैं और सभी को उनकी पूजा करनी चाहिए।
महेंद्र महाराज जी ने 1969 में समाधी ली। महाराज जी के समाधी लेने के बाद जब उन्हें अंतिम संस्कार हेतु एक मैदान में लाया जा रहा था तब कई भक्तों ने यह देखा कि महाराज जी का हाथ उठकर उनको आशीर्वाद दे रहा है। वृन्दावन में भक्तों को यह घटना आज भी याद है।
कुछ वर्षों बाद फिर से उत्तराखंड में नैनीताल जिले के भीमताल ब्लॉक के एक गांव हैड़ाखान में वर्ष 1970 में एक साधु को देखा गया।  जून 1970 में हैड़ाखान में गौतमी नदी (गौला नदी) के पास एक गुफा में देखे गए इस महान दिव्य विभूति के बारे में लोगों का मत है कि वह भगवान शिव के अवतार हैं, उनका जन्म किसी महिला के गर्भ से नहीं हुआ। इन्होने इस गुफा में 45 दिन तक अपने स्थान से हिले बिना तपस्या की, वहीँ  इन्हें कई चमत्कारिक सिद्धियां प्राप्त हुई। हैड़ाखान गांव के लोगों द्वारा कही गयी प्रत्यक्ष घटना के आधार पर एक बार इस दिव्यात्मा को पहाड़ों के ऊपर देखा गया।
हैड़ाखान बाबा के बारे में एक घटना काफी मशहूर है कि वर्ष 1971 में इन्होंने हल्द्वानी न्यायालय के जज को यह यकीन दिला दिया कि वह वर्ष 1860–1922 के बीच यहाँ निवास करते थे और दोबारा इस क्षेत्र में रहने आये है। अतः पूर्व से बने इनके कठघरिया और हैड़ाखान स्थित आश्रम का स्वामित्व इन्हें पुनः सौपा जाए।

वर्ष 1971 से इन्होंने सम्पूर्ण भारत में भ्रमण किया और अपनी शिक्षाओं का प्रचार किया। तभी से वह हैड़ाखान बाबा के नाम से प्रसिद्ध हुए और इनकी ख्याति विदेशों तक फैली। हैड़ाखान बाबा ने सरलता, समर्पण और प्रेम का सन्देश दिया।

वर्ष 1984 में 14 फ़रवरी को इन्होंने अपना शरीर त्याग दिया और हैड़ाखान आश्रम में ही उनकी समाधी बना दी गई।

नानतिन बाबा, गंगोत्री बाबा और दूधाधारी महाराज जैसे सिद्ध संत भी हैड़ाखान बाबाजी का आशीर्वाद लेने आते और उनके अनुयायिओं के कहते हैड़ाखान बाबाजी स्वयं ब्रह्मा-विष्णु-महेश और परमेश्वर सब उनमें ही बसे हैं। संत शिरोमणि बाबा नीम करोली महाराज और रणछोरदासजी महाराज ने महासमाधि लेने के बाद भी अपने प्रिय भक्तों को स्वप्न में दर्शन देकर धरती पर भगवान् के शिव स्वरुप हैड़ाखान बाबाजी की अर्चना और आशीर्वाद लेने को कहा। हैड़ाखान बाबा जी से आशीर्वाद लेने का क्रम आज भी निरंतर चल रहा है।
ओम नमः शिवाय

        रवि जोशी
भक्त लेखक

बाबा हैडाखान मंदिर, चिलियानौला, रानीखेत, अल्मोड़ा, उत्तराखंड