जल का जीवन में महत्व: वेदों में जल

जल का जीवन में महत्व: वेदों में जल

जल जीवन का पालना है। प्राणवायु ऑक्सीजन जीव की विविध क्रियाओं को क्रियाशील बनाते हुए उसे जीवन प्रदान करती है। जीवन की इन विविध क्रियाओं का आधार जल है। इसलिए जल को जीवन का आधार कहते हैं। जल जीव की आन्तरिक रचना ही नहीं बल्कि वाह्य व्यवस्थाओं के लिए भी अत्यधिक आवश्यक है। यही कारण है कि विश्व के अधिकांश मानव समूहों का विकास जल स्रोत्रों के आसपास ही हुआ है।

श्रीशिवमहापुराण उमासंहिता अध्याय 26 श्लोक 15-16 के अनुसार भगवान् शंकर माता पार्वति से कहते हैं कि ’आकाश से वायु उत्पन्न होता है, वायु से तेज उत्पन्न होता है, तेज से जल उत्पन्न होता है और जल से पृथ्वी उत्पन्न होती है। ये क्रमशः पृथ्वी आदि पंचभूत एक दूसरे में पूर्व-पूर्व के क्रम से विलीन होते हैं’। जल को हम युगों से पूजनीय मानते है। वैदिक सभ्यता पूर्व में मुख्य नदियों के किनारों पर ही विकसित हुई। जो जल के वृहत महत्व को दर्शाता है। हिन्दू धर्म में हर व्यक्ति के जन्म से मृत्युपर्यन्त, सभी संस्कारों में जल का विशेष महत्व है। स्नान करते समय निम्न मन्त्र का जाप किया जाता है।

गंगे च यमुने चैव गोदावरी सरस्वती

नर्मदे सिन्धु कावेरी जलेस्मिन् सन्निधिम् कुरु

(आहिन्क सूत्रावली 106)

जिसके अन्तर्गत भारतवर्ष की मुख्य नदियों का स्मरण किया जाता है। मधुच्छन्दस के तीसरे सूक्त की तीन ऋचाऐं, जिनमें सरस्वती का आवाहन किया गया है।

पावका नः सरस्वती वाजेभिर्वा जिनीवती यज्ञं वष्टु धियासुः

चोदयित्री सनृतानां चेतन्ती सुमतीनाम् यज्ञं दधे सरस्वती

महो अर्णः सरस्वती प्रचेयति केवुना धियो विश्वा वि राजति

अर्थात् सरस्वती (जो वर्तमान में विलुप्त हो चुकी है) जो बड़ी वृहत नदी है, वोधन के द्वारा हमें ज्ञान के प्रति जागृत करती है और हमारे सब विचारों में प्रकाशित होती है।

ऋग्वेद का 10-75 सूक्त ‘नदी सूक्त‘ ही कहा जाता है इसमें एक साथ अनेक नदियों का उल्लेख है।

इमं मे गंगे यमुने सरस्वती शुतुद्रि स्तोमं सचता परुष्णया

असिक्न्या मरूद्ष्टधे वितस्याऽऽर्जिकीये शणुह्या सुषोमाया

गंगा, यमुना, सरस्वती, शतुद्रि, परुष्णी, असिक्नी, मरुद्वषा, वितस्ता, आर्जिकिया, सुषोमा आदि नदियों का उल्लेख किया गया है।

सतपथ ब्राह्मण के अनुसार यजमान व्रत से पहले आवाहनीय तथा गार्हपत्य अग्नियों के मध्य खड़ा होकर पूर्वाभिमुख होकर जल का स्पर्श करता है। वह जल का स्पर्श क्यों करता है? क्योंकि जल पवित्र करने वाला है वह विचार करता है ’इस पवित्र करने वाले जल द्वारा पवित्र हुआ मैं व्रत का धारण करूंगा’।

जल का उपयोग चिकित्सा (अपांभेषज) के रूप में भी किया जाता था। जिसका सम्पूर्ण उल्लेख ऋग्वेद में किया गया है।

शं न आपो धन्वन्याः शभु सन्त्वनूप्याः ।

शं नः खनित्रिमा आपः शमु याः कुम्भ अमृताः

शिवा नः सन्तु वार्षिकीः

अर्थात् सूखे प्रान्त का जल हमारे लिए कल्याणकारी हो। जलमय देश का जल हमें सुख प्रदान करे। भूमि से खोदकर निकाला गया कुएँ आदि का जल हमारे लिए सुखप्रद हो। पात्र में स्थित जल हमें शान्ति देने वाला हो। वर्षा से प्राप्त जल हमारे जीवन में सुख-शान्ति की वृष्टि करने वाला सिद्ध हो।

हिरण्यवर्णां शुचयः पावका यासु जातः सविता यास्वग्निः

या अग्निं गर्भं दधिरे सुवर्णास्ता न आपः शं स्योना भवन्तु

अर्थात् जो जल सोने के समान आलोकित होने वाले रंग से सम्पन्न, अत्यधिक मनोहर शुद्धता प्रदान करने वाला है, जिससे सविता देव और अग्नि देव उत्पन्न हुए हैं। जो श्रेष्ठ रंग वाला जल हमारी व्याधियों को दूर करके हम सबको सुख और शान्ति प्रदान करे।

या सां राजा वरुणो याति मध्ये सत्यानृते अवपश्यज्जनानाम् ।

या अग्निं गर्भं दधिरे सुवर्णास्ता न आपः शं स्योना भवन्तु ।।

अर्थात् जिस जल में रहकर राजा वरुण, सत्य एवं असत्य का निरीक्षण करते चलते हैं। जो सुन्दर वर्ण वाला जल अग्नि को गर्भ में धारण करता है, वह हमारे लिए शान्तिप्रद हो।

या सां देव दिवि कृण्वन्ति भक्षं या अन्तरिक्षे बहुधा भवन्ति ।

या अग्निं गर्भं दधिरे सुवर्णास्ता न आपः शं स्योना भवन्तु।।

अर्थात् जिस जल के सारभूत तत्व तथा सोमरस का इन्द्र आदि देवता द्युलोक में सेवन करते हैं। जो अन्तरिक्ष में विविध प्रकार से निवास करते हैं। अग्निगर्भा जल हम सबको सुख और शान्ति प्रदान करे।

शिवेन मा चक्षुषा पश्यतापः शिवया तन्वोप स्पृशत त्वचं में ।

घृतश्चुतः शुचयो याः पावकास्ता न आपः शं स्योना भवन्तु।।

अर्थात् हे जल के अधिष्ठाता देव! आप अपने कल्याणकारी नेत्रों द्वारा हमें देखें तथा अपने हितकारी शरीर द्वारा हमारी त्वचा का स्पर्श करें। तेजस्विता प्रदान करने वाला शुद्ध तथा पवित्र जल हमें सुख तथा शान्ति प्रदान करे।

124वाँ सूक्त में उल्लेख है कि

दिवो नु मां बृहतो अन्तरिक्षादपांस्तोको अभ्यपप्तद् रसेन।

समिन्द्रि्रयेण पयसाहमग्ने, छन्दोभिर्यज्ञैः सुकृतां कृतेन

अर्थात् विशाल द्युलोक से दिव्य-अप् (जल) युक्त रस की बूँदें हमारे शरीर पर गिरी है। हम इन्द्रियों सहित दुग्ध के समान सारभूत अमृत से एवं छन्दों से सम्पन्न होने वाले यज्ञों के पुण्यफल से युक्त हों।

यदि वृक्षादभ्यपप्तत् फलं तद् यद्यन्तरिक्षात् स उ वायुरेव

यत्रास्पृक्षत् तन्वो यच्च वासस आपो नुदन्तु निऋर्तिं पराचैः ।

अर्थात् वृक्ष के अग्र भाग से गिरी वर्षा की जल बूँद, वृक्ष के फल के समान ही है। अन्तरिक्ष से गिरा जल बिन्दु निर्दोष वायु के फल के समान है। शरीर पर उसका स्पर्श हुआ है। वह प्रक्षालनार्थ जल के समान ’निऋर्तिदेव’ हमसे दूर करें।

अभ्यंजनं सुरभि सा समृद्धिर्हिरण्यं वर्चस्तुदं पूत्रिममेव

सर्वा पवित्रा वितताध्यस्मत् तन्मा तारीनि्ऩ़ऋर्तिर्मो अरातिः।

अर्थात् यह अमृत वर्षा उबटन, सुगंधित द्रव्य, चन्दन आदि सुवर्ण धारण तथा वर्चस् की तरह समृद्धि रूप है। यह पवित्र करने वाला है। इस प्रकार पवित्रता का आच्छादन होने के कारण ’पापदेवता’ और शत्रु हमसे दूर रहें।

ऋग्वेद (10.9) में आपः (जल) सूक्त के माध्यम से जल को देवता का स्थान दिया है-

आपो हि ष्ठा मयोभुवस्ता न उर्जे दधातन महे रणाय रक्षसे

अर्थात् हे आपः! आप प्राणीमात्र को सुख देने वाले हैं। सुखापभोग एवं संसार में रमण करते हुए, हमें उत्तम दृष्टि की प्राप्ति हेतु पुष्ट करें।

यो वः शिवतमो रसस्तस्य भाजयतेहः नः उशतीरिव मातरः

अर्थात् जिनका स्नेह उमड़ता ही रहता है, ऐसी माताओं की भाँति, आप हमें अपने सबसे अधिक कल्याणप्रद रस में भागीदार बनायें।

तस्मा अरं गमाम वो यस्य क्षयाय जिन्वथ आपो जनयथा च नः

अर्थात् अन्न आदि उत्पन्न कर प्राणिमात्र को पोषण देने वाले हैं दिव्य प्रवाह! आपका सान्निध्य पाना चाहते हैं। हमारी अधिकतम वृद्धि हो।

शं नो देवीरभिष्टये आपो भवन्तु पीतये। शं योरभि स्रवन्तु नः ।

अर्थात् दैवीगुणों से युक्त आपः (जल) हमारे लिए हर प्रकार से कल्याणकारी और प्रसन्नतादायक हो। वह आकांक्षाओं की पूर्ति करके आरोग्य प्रदान करे।

ईषाना वार्याणां क्षयन्तीष्चर्षणीनाम् अपो याचामि भेषजम्

अर्थात् व्याधि निवारक दिव्य गुण वाले जल का हम आवाहन करते हैं। वह हमें सुख-समृद्धि प्रदान करें। उस औषधि रूप जल की हम प्रार्थना करते हैं।

अप्सु मे सोमो अब्रवीदन्तर्विष्वानि भेषजा । अग्निं च विष्वषम्भुवम्

अर्थात् ’सोम’ का हमारे लिए उपदेश है कि ’दिव्य आपः’ हर प्रकार से औषधीय गुणों से युक्त है। उसमें कल्याणकारी अग्नि भी विद्यमान है।

आपः प्रणीत भेषजं वरुथं तन्वे मम ज्योक् च सूर्यं दृषे

अर्थात् दीर्धकाल तक मैं सूर्य को देखूँ। हे जल! शरीर को आरोग्यवर्धक दिव्य औषधियाँ प्रदान करो।

इदमापः प्रवहतयत्किंच दुरितंमयि

यद्वाहमभिदुद्रोहयद्वाषेप उतानृतम्

अर्थात् हे जल! कृपया मेरी दुष्ट प्रवृत्तियाँ दूर करें। मेरे मन में जो भी झूठ है उसे धो दीजिए।

आपो अद्यान्वचारिषं रसेन समगस्महि

पयस्वानग्न आ गहि तं मा सं सृज वर्चसा

अर्थात् हे जल! आज आप में पर्याप्त रस व्याप्त है। मैं आपके अन्दर गहराई में अवगाहन करना चाहता हूँ। और आपके अन्दर जो अग्नि है वो मुझमें चमक उत्पन्न करे।

हिन्दू धर्म में नित्यकर्म के अर्न्तगत शौचाचार अभयन्तर-शौच, दन्तधावन-विधि, क्षौरकर्म, स्नान, संध्योपासना तर्पण, ब्रह्मयज्ञ, देवपूजन, संकल्प आदि क्रियाकलाप बिना जल के पूर्ण नहीं हो सकते हैं। संध्योपासना विधि में सर्वप्रथम आचमन का प्रावधान है और आचमन बिना जल के नहीं किया जा सकता है। मार्जन विनियोग में मन्त्र पढ़कर जल छोड़ा जाता है। निम्न मन्त्र से मार्जन (शरीर एवं सामग्री पर कुश द्वारा जल छिड़कने की प्रक्रिया) किया जाता है।

ऊँ अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोऽपि वा

यः स्मरेत् पुण्डरीकाक्षं सः वाह्याभ्यन्तरः शुचिः।

हे जल! हम भगवान विष्णु का स्मरण करते हुए आपके माध्यम से वाह्य और आन्तरिक अपवित्रता को पवित्रता में परिणित करने का आग्रह करते हैं। इस प्रकार अनेक क्रियायें यथा कलश स्थापन, गणेश पूजन एवं पंचेदव पूजन इत्यादि भी बिना जल के पूर्ण नहीं होते। प्रत्येक पूजा विधान के बाद यह मन्त्र बार-बार दोहराया जाता है कि

आचमनीयं जलं समर्पयामि (आचमन के लिए जल समर्पित करें)

किसी भी पुण्य कार्य करने से पहले संकल्प लिया जाता है और संकल्प बिना जल के नहीं किया जा सकता। सोलह संस्कारों में मुख्यतया जल से ही सभी कार्य सम्पन्न होते हैं। नामकरण संस्कार सम्पन्न होने के बाद निष्क्रमण संस्कार के क्रम में सर्वप्रथम दिशाओं तथा दिग्देवता की स्थापना की जाती है। इस हेतु किसी पवित्र पात्र में जल लेकर उसमें दिगीशादि देवों पर अक्षत छोड़ते हुए निम्न मन्त्र द्वारा उनका आवाहन एवं प्रतिष्ठापन करते हैं।

ऊँ भूर्भुवः स्वः जले दिगीषदिदेवा गगनपर्यन्ता आगच्छन्तु तिष्ठन्तु सुप्रतिष्ठिता वरदा भवन्तु।

जब कर्णवेध संस्कार किया जाता है तो कलश में जल लेकर उसमें देवों को निम्न मन्त्र द्वारा आवाहित किया जाता है और अक्षत छोड़े जाते हैं।

ऊँ भूर्भुवः स्वः कलषे ब्रह्मवरूणरूद्रसहिता आदित्यादि नवग्रहाः जले केषवादिदेवाः सुप्रतिष्ठिता वरदा भवन्तु।

प्रत्येक विधि विधान में प्रणीता में जल लेकर कुश द्वारा जल छिड़क कर निम्न मन्त्र द्वारा मार्जन किया जाता है।

ऊँ आपः षिवाः षिवतमाः शान्तः शान्ततमास्तास्ते कृण्वन्तु भेषजम्।

गृहस्थ जीवन के लिए पालनीय नियमों में जल को श्रेष्ठ स्थान दिया गया है। कहा गया है कि जल में अपनी परछाई न देखें। पारस्करगृह्य सूत्र के अनुसार

अप्स्वात्मानं नावेक्षेत

(पा0गृ0सू0 काण्ड 2 कण्डिका 7)

वैदिक परम्परा से वर्तमान समय तक जल का महत्व स्पष्ट है। वर्तमान में भी कथाज्ञान यज्ञ (यथा श्रीमद्भागवत महापुराण, श्रीशिवमहापुराण आदि) में सर्वप्रथम कलश यात्रा का प्रावधान है और कथा पाण्डाल में जलयुक्त कलश पूर्णावधि तक रखा जाता है। पूर्णाहुति के उपरान्त उस जल को घरों में छिड़का जाता है। जल की सकारात्मक ऊर्जा को ग्रहण करने की शक्ति के कारण ही जल की पवित्रता और बढ़ जाती है। जिससे जल की महत्वता स्वयं सिद्ध होती है।

अपनी इस भूधरा में जल प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है, लेकिन इसका अधिकांश भाग (92%) लवण जल है। जो जीवजगत के लिए अनुपयोगी है। उपलब्ध अलवण जल में से भी मानव उपयोग के लिए उपलब्ध जल अत्यधिक सीमित है। मानव के लिए सुलभ सीमित जल को भी वर्तमान में उपभोक्ता वादी समाज व्यवस्था ने अपने शहरीकरण, औद्योगिकीकरण व जनसंख्या वृद्धि से इसको संदूषित ही नहीं बल्कि प्रदूषित श्रेणी में पहुचा दिया है। मानव की जीवन रेखा कहीं जाने वाली नदियाँ प्रदूषित हो चुकी हैं। मानव निर्मित तज्य पदार्थो और उद्योगों से निकले वाले दूषित तरल ने नदियों और जल स्रोतों को दूषित कर दिया है। जल स्रोत सूखने लगे हैं, और आज जल स्रोतों का पुर्नजनन ही अन्तिम विकल्प है। जिससे भू धरा में पर्याप्त जल जीव तन्त्र को बनाए रखने के लिए उपलब्ध हो सकता है।