योग मार्ग के विघ्न एवम् सिद्धि-सूचक ऐश्वर्य गुणों का वर्णन

योग मार्ग के विघ्न एवम् सिद्धि-सूचक ऐश्वर्य गुणों का वर्णन

उपमन्यु कहते हैं श्री कृष्ण! आलस्य, तीक्ष्ण व्याधियां, प्रमाद, स्थान-संशय, अनवस्थितचित्तता, अश्रद्धा, भ्रान्ति-दर्शन, दु:ख, दौर्मनस्य और विषय-लोलुपता-ये दस योग साधन में लगे हुए पुरुषों के लिए योगमार्ग के विघ्न कहे गए हैं।

योगियों के शरीर और चित्त में जो अलसता का भाव आता है, उसी को यहां ‘आलस्य’ कहा गया है। वात, पित्त, और कफ इन धातुओं की विषमता से जो दोष उत्पन्न होते हैं, उन्हीं को ‘व्याधि’ कहते हैं। कर्म दोष से इन व्याधियों की उत्पत्ति होती है।

असावधानी के कारण योग के साधनों का ना हो पाना ‘प्रमाद’ है। यह है या नहीं इस प्रकार उभयकोटी से आक्रांत हुए ज्ञान का नाम ‘स्थान-संशय’ है। मन का कहीं स्थिर न होना ही अनवस्थितचित्तता (चित्त की अस्थिरता) है। योग मार्ग में भाव रहित (अनुराग शून्य) जो में की वृत्ति है, उसी को ‘अश्रद्धा’ कहा गया है।

विपरीत भावना से युक्त बुद्धि को ‘भ्रांति’ कहते हैं। [‘दु:ख’ कहते हैं कष्ट को, उसके तीन भेद हैं-आध्यात्मिक, आधिभौतिक और आधिदैविक।]

मनुष्यों के चित्त का जो अज्ञान जनित दुःख है, उसे आध्यात्मिक दुःख समझना चाहिए।

पूर्व कृत कर्मों के परिणाम से शरीर में जो रोग आदि उत्पन्न होते हैं, उन्हें आधिभौतिक दुःख कहा गया है। विद्युत्पात, अस्त्र शस्त्र, और विष आदि से जो कष्ट प्राप्त होता है, उसे आधिदैविक दुःख कहते हैं।

इच्छा पर आघात पहुंचने से मन में जो क्षोभ होता है उसी का नाम ‘दौर्मनस्य’। विचित्र विषयों में जो सुख का भ्रम है, वही विषय लोलुपता है। योग परायण योगी के इन विघ्नों के शांत हो जाने पर जो 'दिव्य उपसर्ग' (विघ्न) प्राप्त होते हैं वह सिद्धि के सूचक हैं।

प्रतिभा, श्रवण, वार्ता, दर्शन, आस्वाद और वेदना- ये 6 प्रकार की सिद्धियां ही ‘उपसर्ग’ कहलाती हैं, जो योग शक्ति के अपव्यय में कारण होती हैं।

जो पदार्थ अत्यंत सूक्ष्म हो, किसी की ओट में हो, भूतकाल में रहा हो, बहुत दूर हो अथवा भविष्य में होने वाला हो, उसका ठीक-ठीक प्रतिभास (ज्ञान) हो जाना 'प्रतिभा' कहलाता है।

सुनने का प्रयत्न करने पर भी संपूर्ण शब्दों का सुनाई देना 'श्रवण' कहा गया है। समस्त देह धारियों की बातों को समझ लेना 'वार्ता' है। दिव्य पदार्थों का बिना किसी प्रयत्न के दिखाई देना 'दर्शन' कहा गया है, दिव्य रसों का स्वाद प्राप्त होना 'आस्वाद' कहलाता है, अंतःकरण के द्वारा दिव्य स्पर्शों का तथा ब्रह्मलोक तक की गंधादि दिव्य भोगों का अनुभव ‘वेदना’ नाम से विख्यात है।

सिद्ध योगी के पास स्वयं ही रत्न उपस्थित हो जाते हैं और बहुत सी वस्तुएं प्रदान करते हैं। मुख से इच्छानुसार नाना प्रकार की मधुर वाणी निकलती है। सब प्रकार के रसायन और दिव्य औषधियां सिद्ध हो जाती हैं। देवांगनाएं इस योगी को प्रणाम करके मनोवांछित वस्तुएं देती हैं। यह मैंने देखा या अनुभव किया है, तदनुसार योगसिद्धि के एकदेश का भी साक्षात्कार हो जाए तो मोक्ष में मन लग जाता है अर्थात् मोक्ष भी हो सकता है।

कृशता, स्थूलता, बाल्यावस्था, वृद्धावस्था, युवावस्था, नाना जाति का स्वरूप; पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु इन चार तत्वों के शरीर को धारण करना, नित्य अपार्थिव एवम् मनोहर गन्ध को ग्रहण करना-ये पार्थिव एश्वर्य के आठ गुण बताए गए हैं।

जल में निवास करना, पृथ्वी पर ही जल का निकल आना, इच्छा करते ही बिना किसी आतुरता के स्वयं समुद्र को भी पी जाने में समर्थ होना, इस संसार में जहां चाहे वहां जल का दर्शन होना, घड़ा आदि के बिना हाथ में ही जल राशि को धारण करना, जिस विरस वस्तु को भी खाने की इच्छा हो, उसका तत्काल सरस हो जाना, जल, तेज और वायु इन तीन तत्वों के शरीर को धारण करना तथा देह का फोड़े, फुंसी और घाव आदि से रहित होना पार्थिव एश्वर्य के 8 गुणों को मिलाकर यह 16 जलीय ऐश्वर्य के अद्भुत गुण हैं।

शरीर से अग्नि को प्रकट करना, अग्नि के ताप से जलने का भय दूर हो जाना, यदि इच्छा हो तो बिना किसी प्रयत्न के इस जगत को जलाकर भस्म कर देने की शक्ति का होना, पानी के ऊपर अग्नि को स्थापित कर देना, हाथ में आग धारण करना, सृष्टि को जलाकर फिर उसे ज्यों-का-त्यों कर देने की क्षमता का होना, मुख में ही अन्न आदि को पचा लेना तथा तेज और वायु-दो ही तत्वों से शरीर को रच लेना-यह 8 गुण जलीय एश्वर्य के उपर्युक्त 16 गुणों के साथ 24 होते हैं। यह 24 तैजस एश्वर्य के गुण कहे गए हैं।

मन के समान वेगशाली होना, प्राणियों के भीतर क्षण भर में प्रवेश कर जाना, बिना प्रयत्न के ही पर्वत आदि के महान भार को उठा लेना, भारी हो जाना, हल्का होना, हाथ में वायु को पकड़ लेना, अंगुली के अग्रभाग की चोट से भूमि को भी कंपित कर देना, एकमात्र वायु तत्व से ही शरीर का निर्माण कर लेना-यह 8 गुण तैजस के 24 उनके साथ 32 हो जाते हैं। विद्वानों ने वायु संबंधी ऐश्वर्य के ही 32 गुण स्वीकार किये हैं।

शरीर की छाया का न होना, इन्द्रियों का दिखाई न देना, आकाश में इच्छानुसार विचरण करना, इन्द्रियों के संपूर्ण विषयों का समन्वय होना आकाश को लांघना, अपने शरीर में उसका निवेश करना, आकाश को पिंड की भांति ठोस बना देना और निराकार होना-ये आठ गुण अग्नि के बत्तीस गुणों से मिलकर चालीस होते हैं। ये चालीस ही वायुसंबंधी एश्वर्य के गुण हैं। यही संपूर्ण इन्द्रियों का एश्वर्य है, इसी को ‘ऐन्द्र’ एवं ‘आंबर’ (आकाश संबंधी) एश्वर्य भी कहते हैं।

इच्छानुसार सभी वस्तुओं की उपलब्धि, जहां चाहे वहां निकल जाना, सबको अभिभूत कर लेना, संपूर्ण गुह्य अर्थ का दर्शन होना, कर्म के अनुरूप निर्माण करना, सबको वश में कर लेना, सदा प्रिय वस्तु का ही दर्शन होना और एक ही स्थान से संपूर्ण संसार का दिखाई देना-ये आठ गुण पूर्वोक्त इंद्रियसंबंधी एश्वर्य गुणों से मिलकर ४८ होते हैं। चांद्रमस एश्वर्य इन ४८ गुणों से युक्त कहा गया है। यह पहले के ऐश्वर्यों से अधिक गुणवाला है। इसे ‘मानस एश्वर्य’ भी कहते हैं।

छेदना, पीटना, बांधना, खोलना, संसार के वश में रहने वाले समस्त प्राणियों को ग्रहण करना, सबको प्रसन्न रखना, पाना, मृत्यु को जितना तथा काल पर विजय पाना-ये सब अहंकार संबंधी एश्वर्य के अन्तर्गत हैं। आहंकारिक एश्वर्य को ही ‘प्राजापत्य’ भी कहते हैं।

चांद्रमास एश्वर्य के गुणों के साथ इसके आठ गुण मिलकर ५६ होते हैं। महान आभिमानिक एश्वर्य के ये ही ५६ गुण हैं। संकल्प मात्र से ही सृष्टि रचना करना, पालन करना, संहार करना, सब के ऊपर अपना अधिकार स्थापित करना, प्राणियों के चित्त को प्रेरित करना, सबसे अनुपम होना, इस जगत से पृथक नये संसार की रचना कर लेना तथा शुभ को अशुभ और अशुभ को शुभ कर देना यह ‘बौद्ध ऐश्वर्य’ है। प्राजापत्य ऐश्वर्य के गुणों को मिलाकर इस के 64 गुण होते हैं। इस बौद्ध ऐश्वर्य को ही ‘ब्राह्म ऐश्वर्य’ भी कहते हैं।

इससे उत्कृष्ट है गौण ऐश्वर्य, जिसे प्राकृत भी कहते हैं। उसी का नाम ‘वैष्णव ऐश्वर्य’ है। तीनों लोकों का पालन उसी के अंतर्गत है। उस संपूर्ण वैष्णव-पद को न तो ब्रह्मा कह सकते हैं और न दूसरे ही उसका पूर्णतया वर्णन कर सकते हैं। उसी को पौरूष पद भी कहते हैं। गौण और पौरुष पद से उत्कृष्ट गणपति पद है। उसी को ईश्वर पद भी कहते हैं। उस पद का किंचित् ज्ञान श्री विष्णु को है। दूसरे लोग उसे नहीं जान सकते।

ये सारी विज्ञा-सिद्धियां औपसर्गिक हैं। इन्हें परम वैराग्य द्वारा प्रयत्न पूर्वक रोकना चाहिए। इन अशुद्ध प्रातिभासिक गुणों में जिसका चित्त आसक्त है, उसे संपूर्ण कामनाओं को पूर्ण करने वाला निर्भय परम ऐश्वर्य नहीं सिद्ध होता।

इसलिए देवता, असुर और राजाओं के गुणों तथा भोगों को जो तृण के समान त्याग देता है, उसे ही उत्कृष्ट योग सिद्धि प्राप्त होती है। अथवा यदि जगत् पर अनुग्रह करने की इच्छा हो तो वह योग सिद्ध मुनि इच्छा अनुसार विचरे। इस जीवन में गुणों और भोगों का उपभोग करके अंत में उसे मोक्ष की प्राप्ति होगी।

अब मैं योग के प्रयोग का वर्णन करूंगा। एकाग्र चित्त होकर सुनो। शुभ काल हो, शुभ देश हो, भगवान शिव का क्षेत्र आदि हो, एकांत स्थान हो, जीव जंतु न रहते हो, कोलाहल ना होता हो और किसी बाधा की संभावना न हो ऐसे स्थान में लिपी-पुती सुंदर भूमि को  गंध और धूप आदि से सुवासित करके वहां फूल बिखेर दें, चंदोवा आदि तान कर उसे विचित्र रीति से सजा दें तथा वहां कुश, पुष्प, समिधा, जल, फल और मूल की सुविधा हो। फिर वहां योग का अभ्यास करें। अग्नि के निकट, जल के समीप और सूखे पत्तों के ढेर पर योगाभ्यास नहीं करना चाहिए।

जहां डांस और मच्छर भरे हो, सांप और हिंसक जंतुओं की अधिकता हो, दुष्ट पशु निवास करते हों, भय की संभावना हो तथा जो दुष्टों से घिरा हुआ हो-ऐसे स्थान में भी योगाभ्यास नहीं करना चाहिए। श्मशान में, वृक्ष के नीचे, बांबी के निकट, जीर्ण-शीर्ण घर में, चौराहे पर, नदी-नद और समुद्र के तट पर गलि या सड़क के बीच में, उजड़े हुए उद्यान में, गोष्ठ आदि में, अनिष्टकारी और निन्दित स्थान में भी योगाभ्यास न करें।

जिसके आहार-विहार उचित एवं परिमित हों, जो कर्मों में यथायोग्य समुचित चेष्टा करता हो तथा जो उचित समय से सोता और जागता हो एवं सर्वथा आयास रहित हो, उसी को योगाभ्यास में तत्पर होना चाहिए। आसन मुलायम, सुंदर, विस्तृत, सब ओर से बराबर और पवित्र होना चाहिए। पद्मासन और स्वस्तिकासन आदि जो यौगिक आसन हैं, उन पर भी अभ्यास करना चाहिए। अपने आचार्य पर्यंत गुरुजनों की परंपरा को क्रमशः प्रणाम करके अपनी गर्दन, मस्तक और छाती को सीधी रखे। ओठ और नेत्र अधिक सटे हुए ना हों। सिर कुछ-कुछ ऊंचा हो। दातों से दातों का स्पर्श न करें।

दातों के अग्र भाग में स्थित हुई जिह्वा को अविचल भाव से रखते हुए, एड़ियों से दोनों अंडकोशों और प्रजननेद्रिय की रक्षा पूर्वक दोनों जांघों के ऊपर बिना किसी यत्न के अपनी दोनों भुजाओं को रखें। फिर दाहिने हाथ के पृष्ठ भाग को बाएं हाथ की हथेली पर रखकर धीरे से पीठ को ऊंची करें और छाती को आगे की ओर से सुस्थिर रखते हुए नासिका के अग्रभाग पर दृष्टि जमाएं अन्य दिशाओं की ओर दृष्टिपात ना करें।

प्राण का संचार रोककर पाषाण के समान निश्चल हो जाएं। अपने शरीर के भीतर मानस-मंदिर में हृदय-कमल के आसन पर पार्वती सहित भगवान शिव का चिंतन करके ध्यान यज्ञ के द्वारा उनका पूजन करें।

मूलाधार चक्र में, नासिका के अग्रभाग में, नाभि में, कंठ में, तालु के दोनों छिद्रों में, भौंहों के मध्य भाग में, द्वार देश में, ललाट में या मस्तक में शिव का चिंतन करें। शिवा और शिव के लिए यथोचित रीति से उत्तम आसन की कल्पना करके वहां सावरण या निरावरण शिव का स्मरण करें। द्विदल, चतुर दल, षड्दल, दशदल, द्वादश दल अथवा षोडश दल कमल के आसन पर विराजमान शिव का विधिवत स्मरण करना चाहिए। दोनों के मध्य भाग में द्विदल कमल है, जो विद्युत के समान प्रकाशमान है।

भ्रूमध्य में स्थित जो कमल है, उसके क्रमशः दक्षिण और उत्तर भाग में दो पत्ते हैं, जो विद्युत के समान दीप्तिमान हैं। उनमें दो अंतिम वर्ण ‘ह’ और ‘क्ष’ अंकित है । षोडश दल कमल के पत्ते 16 स्वररूप हैं, जिनमें ‘अ’ से लेकर ‘अः’ तक के अक्षर क्रमशः अंकित हैं।

यह जो कमल है, उस की नाल के मूल भाग से 12 दल प्रस्फुटित हुए हैं, जिनमें  ‘क’ से लेकर ‘ठ’ तक के 12 अक्षर क्रमशः अंकित हैं। सूर्य के समान प्रकाशमान इस कमल के उन द्वादश दलों का अपने हृदय के भीतर ध्यान करना चाहिए।

तत्पश्चात् गो-दुग्ध के समान उज्जवल कमल के 10 दलों का चिंतन करें। उनमें क्रमशः ‘ड’ से लेकर ‘फ’ तक के अक्षर अंकित हैं। इसके बाद नीचे की ओर दलवाले कमल के 6 दल हैं, जिनमें ‘ब’ से लेकर ‘ल’ तक के अक्षर अंकित हैं। इस कमल की कांति धूम्र रहित अंगार के समान है।

मूलाधार में स्थित जो कमल है, उसकी कांति स्वर्ण के समान है। उसमें क्रमशः ‘व’ से लेकर ‘स’ तक के चार अक्षर चार दलों के रूप में स्थित है। इन कमलों में से जिस में भी अपना मन रमे, उसी में महादेव और महादेवी का अपनी धीर बुद्धि से चिंतन करें।

उनका स्वरूप अंगूठे के बराबर, निर्मल और सब ओर से दीप्तिमान है। अथवा वह शुद्ध दीपशिखा के समान आकार वाला है, और अपनी शक्ति से पूर्णता मंडित है। अथवा चंद्रलेखा या तारा के समान रूप वाला है अथवा वह निवार के सींक या कमल नाल से निकलने वाले सूत के समान है। कदंब के गोलक या ओस के कण से भी उसकी उपमा दी जा सकती है।

वह रूप पृथ्वी आदि तत्वों पर विजय प्राप्त करने वाला है। ध्यान करने वाला पुरुष जिस तत्व पर विजय पाने की इच्छा रखता हो, उसी तत्व के अधिपति की स्थूल मूर्ति का चिंतन करें।

ब्रह्मा से लेकर सदाशिव पर्यंत तथा भव आदि आठ मूर्तियां ही शिव शास्त्र में शिव की स्थूल मूर्तियां निश्चित की गई हैं। मुनिश्वरों ने उन्हें ‘घोर’, ‘शान्त’ और ‘मिश्र’ तीन प्रकार की बताया है। फल की आशा न रखने वाले ध्यान कुशल पुरुषों को इनका चिंतन करना चाहिए। यदि घोर मूर्तियों का चिंतन किया जाए तो वे शीघ्र ही पाप और रोग का नाश करती हैं।

मिश्र मूर्तियों में शिव का चिंतन करने पर चिरकाल में सिद्धि प्राप्त होती है और सौम्य मूर्ति में शिव का ध्यान किया जाए तो सिद्धि प्राप्त होने में न तो अधिक शीघ्रता होती है और ना अधिक विलंब ही। सौम्य मूर्ति मैं ध्यान करने से विशेषतः मुक्ति, शांति एवं शुद्ध बुद्धि प्राप्त होती है क्रमशः सभी सिद्धियां प्राप्त होती हैं, इसमें संशय नहीं है।


साभार

श्री शिव महापुराण के अंतर्गत सातवीं वायवीय संहिता के उत्तरखंड में योग गति में विघ्नोत्पत्ति वर्णन नामक ३८ वां अध्याय।