प्रेम रहस्य

वास्तविक प्रेम की कसौटी को गूढ़तम दृष्टिकोण से समझने के लिए व्यक्ति के सदविचार महत्वपूर्ण पहलू हैं। प्रेम की भाषा मौन एवं शब्द रहित अवश्य है, परंतु अभिव्यक्ति के लिए भाषा का उपयोग मौखिक अथवा लिखित रूप से सदविचार रूपी ऊर्जा के माध्यम से हस्तांतरित किया जा सकता हैं।कोई भी व्यक्ति पाषाण हृदय नहीं हो सकता, परंतुहृदय संवेदनशील एवं फूल की तरह कोमल भावनाओं से ओतप्रोत रहता है। उस पर किसी भी प्रकार का तीर चुभ सकता है चाहे वह घाव का कार्य करें और चाहे मलहम का।प्रेम करना बुरी बात नहीं है परंतु कुछ विचारों को माध्यम बनाकर प्रेम बनावटी रूप धारण कर क्षणभंगुरता की ओर अग्रसर होता है. विचारों का सामंजस्य ही मानव प्रेम है, प्रेम के कई रूप हो सकते हैं, प्राचीन काल में भी प्रेम करने का अपना अनूठा ढंग हुआ करता था. श्रृंगार, करुण, रौद्र, वियोग, संयोग एवं वात्सल्य आदि आदि। यह तो अपना असर पत्थर पर भी दिखा सकता है. लोहा जैसी कठोर धातु यदि पारस पत्थर के साथ मिलती है तो सोना बन जाती है। वाह्य प्रेमऔर आंतरिक सच्चा प्रेम भी क्रमशः सांसारिक एवंभीतरी आनंद अनुभव कराने वाले कारक हैं. श्री कृष्ण भगवान जब उद्धव को वृंदावन गोपियों को समझाने भेजते हैं तो गोपियों उद्धव से कहती हैं

उधो, मन न भए दस बीस।

एक हुतो सो गयौ स्याम संग, को अवराधै ईस।।

गोपियां कहती है, `मन तो हमारा एक ही है, दस-बीस मन तो हैं नहीं कि एक को किसी के लगा दें और दूसरे को किसी और में। अर्थात् मन से किया गया प्रेम नश्वर है यही प्रेम यदि हृदय से प्रदर्शित किया जाए तो सबसे पहले विचारों से हृदय परिष्कृत होता है. हृदय पर स्थित होने पर प्रेम की भाषा शब्दरहित एवं मौन हो जाया करती हैं।यदि प्रेम की कोई मौन भाषा है तो उसका स्थान है आँख,आँख में अभिव्यक्ति का माध्यम आँसू है. हृदय गदगद हो जाने की स्थिति में प्रेम एक दूसरे में विलीन हो जाता है। प्रेम की प्यास जो विशुद्ध चेतन हृदय से उत्पन्न हुई हो, जितना अधिक बढ़े उतना ही रसास्वादन कर आनंदानुभूति की चरम सीमा के द्वार खटखटाने लगती है।

व्यक्ति की हार्दिक इच्छा रहती है कि उसके विचारों को समझा जाए, महसूस किया जाए, उदाहरणार्थ, अत्यंत विरह में व्याकुल व्यक्ति की इच्छा कुछ इस ढंग से हो जाती है कि उसे वह मिल जाए जो वह पाना चाहता है, परंतु उसके लिए एकाकी प्रकृति व गंभीर चिंतन आवश्यक है।

प्रेम का उपयोग दोहन के रूप में ना हो अन्यथा बनी बनाई चरित्र की मंजिल ध्वस्त हो जाती है, उसे गहराई से जानना सर्वप्रथम आवश्यक है. हमें चाहिए कि हम एक दूसरे को अपनी खुशबू लुटानेएवं महसूस करने का अवसर प्रदान करें, परंतु उतना ही जितना कि होना चाहिए। साहित्य, संगीत, भजन एवं कला के माध्यम से भी उक्त बीज को आरोपित कर विशाल वट वृक्ष पौडा किया जा सकता है।परंतु उसी की छाया में बैठे रहना भी सीखना होगा तभी प्रेमरूपी बीज से उगा पौधा खड़ा रह सकता है, अन्यथा वह भी जो दूसरों को सहारा, प्रेरणा, शिक्षा, छाया देता है, ढह जाएगा ध्वस्त होकर गिर पड़ेगा।


श्री शंकर दत्त पन्त