मनुष्य की सर्वोत्तम उपलब्धि: चरित्र

वृत्तं यत्नेन संरक्षेद् वित्तमेति च याति च।
अक्षीणो वित्ततः क्षीणो वृत्ततस्तु हतो हतः ॥

विदुर नीति४/३०

अर्थात्चरित्र की यत्नपूर्वक रक्षा करनी चाहिए। धन तो आता-जाता रहता है। धन के नष्ट होने पर भी चरित्र सुरक्षित रहता है, किन्तु चरित्रहीन तो धन से सम्पन्न होने पर भी नष्ट ही है।

अपनी अल्प अनुभूतियों के माध्यम से यदि गौर कर मनुष्य के वास्तविक धरातल को देखा जाए तो पता चलता है कि वह क्या था, क्या हो गया और क्या होगा! प्राचीन आदर्शों का यदि मनन एवं चिंतन किया जाए तो यह मनुष्य के मस्तिष्क के लिए मात्र एक कल्पना और धारणा बनी रहती है. वास्तविकता से यदि मनुष्य स्वयं अपने लिए, अपने आपको, अपने प्रति समर्पित करने को तैयार है तो वह उसकी सबसे बड़ी उपलब्धि है ।

वातावरण के अंधानुकरण की ओर यह शून्य मस्तिष्क इस शरीर को मन की आंशिक सहायता लेकर गहरे गर्त में धकेल रहा है। उसकी आंखों में काली पट्टी, उसके पास विवेक रहते शून्य हो चुकी है। इस सभी से ऊपर उठकर यदि मनुष्य यह सोचे कि मैं कौन हूं? क्या मेरा काम है? समाज की मेरे प्रति क्या अपेक्षाएं हैं, एवं धारणाएं हैं? मेरे अपने एवं दूसरों के प्रति क्या मान्यताएं हैं? मेरे अंतरतम की पुकार मुझसे क्या करवाना चाहती है? अर्थात् मेरी कल्पनाएं क्या है? क्या उनका रहस्य है? अपने स्वरूप को जानने हेतु भौतिक पक्ष को माध्यम बनाकर आध्यात्मिक पक्ष को निरंतर लक्ष्य कर यदि इस लंबी कड़ी में मनुष्य काम, क्रोध, मद, लोभ इन सभी शत्रुओं को त्याग कर उसके स्थान पर उच्चतम आदर्शों, चरित्र, कर्मठता, दृढ़ संकल्पता की लड़ियां पिरो-पिरोकर एक माला का निर्माण करें, तो स्वाभाविक है मनुष्य की इच्छाशक्ति का दमन होगा,कल्पना एवं चिंतन शक्ति बढ़ेगी, मस्तिष्क विकसित एवं स्वस्थ होगा, नेक कार्य होंगे.सदानन्द एवं संतोष की अनुभूति होगी, परंतु कौन, किसको कहे तू ऐसा कर! हो सकता है कि हम भी शायद विचारों तक ही सीमित हो और मात्र काल्पनिक संसार में ही विचरण कर रहे हो, परंतु ऐसा भी नहीं है। भौतिक पक्ष एवं आध्यात्मिक पक्ष इतना संगीन क्यों हो गया? भौतिक पक्ष में वहां अपनी उन्नति समझने लगा है, पूर्णतया उसी का एक पक्षधर होनासंकीर्णता का भाव पैदा कर आध्यात्मिक पक्ष के लिए खतरा बन जाता है, क्यों नहीं वह अपने चरित्र की रक्षा स्वयं करता है?

मानव की भावनाएं अनंत है. समाज की मान्यताएं अनंत है. कही हुई, सुनी हुई बातों में पूर्ण विश्वास एवं हकीकत में आंशिक! स्वविवेक बुद्धि से बढ़कर होता है संपूर्ण ज्ञान मनुष्य में निहित है, परंतु जिज्ञासा एवं उस प्रकार का वातावरण शायद उसका साध्य है। परंतु वह उसकी ओर कदम रखने में अपनी अवनति मानता है। मैं मानता हूं कि मनुष्य काफी प्रगति कर चुका है वैज्ञानिकों ने भी काफी प्रगति कर यंत्रों का अविष्कार किया परंतु जिस वस्तु का आविष्कार किया उसका श्रेय, उसके विवेक एवं स्वयं प्रयास को देना उचित नहीं है। मनुष्य की अपनी योग्यता, अपना आदर्श, अपना उत्थान, अपना विकास का ऊर्जा स्रोत कहां चला गया।

आजकल जहां की ओर ही नजर दौड़ाएं तो एक-एक व्यक्ति को भौतिकता की चकाचौंध में व्यस्त पाकर, उसका उसी में आनंदित एवं आत्म संतुष्टि को देखकर, जो क्षणिक है, से एक ठेस पहुंचती है कि मनुष्य इतना क्यों भटक गया है।वास्तव में देखा जाए तो अपना विकास, चाहे वह किसी भी क्षेत्र से सकारात्मक प्रयास द्वारा अर्जित किया हो, ही समाज का विकास है। क्योंकि यदि एक-एक व्यक्ति अपने चरित्र एवं आदर्श तथा कर्तव्य को अंगीकार करने को महत्व देकर उसको कार्यान्वित करता है तो वह सभी को एक सूत्र में पिरोने वाली एक रस्सी है।

किसी के प्रति यदि हम नेक विचार रखते हों परंतु वह उसके महत्व को गहराई से नहीं समझता है तो ठेस पहुंचती है मस्तिष्क में विचार मन्मथ हुआ करते हैं उनका उद्दीपन समाज एवं वातावरण मेंहोता है. हर एक व्यक्ति मात्र मनुष्य के बाह्य स्वरूप पर केंद्रित होकर मनुष्य को मात्र मनुष्य देखता है, परंतु यह मनुष्य कि उसकी वाह्य काया की काली पॉलिश को फाड़ कर अंदर की मनुष्यता एवं मानवता की शक्ति को भापने की शक्ति रखता है, तो, वह वास्तव में उसका उत्कृष्ट चरित्र कहा जाएगा।


श्रीशंकर दत्त पन्त