संस्कार

बिनु सत्संग विवेक न होई ।राम कृपा बिनु सुलभ न सोई ।।
सतसंगत मुद मंगल मूला। सोई फल सिधि सब साधन फूला।।

रामचरितमानस बालकाण्ड ४

अर्थात्सत्संग के बिना विवेक नहीं होता और प्रभुश्री रामजी की कृपा के बिना वह सत्संग सहज मेंनहीं मिलता। सत्संगति आनंद और कल्याण का मूलहै। सत्संग की प्राप्ति ही फल है और सब साधन तो फूल है.

संस्कार वास्तव में एक प्रकार का ऐसा बीज है जो मूल रूप से किसी भी मनुष्य, पशु, प्रकृति एवं वायुमंडल को झंकृत कर अपनी ही प्रकृति स्वभाव में ढालने के लिए मजबूर कर, चुंबकीय शक्ति के रूप में गुरुत्वाकर्षण की धरती अथवा गहराई एवं मूल अवस्था की ओर सिद्धहस्त है। मनुष्य काल्पनिक, शारीरिक, मानसिक,और भौतिक रूप से अत्यंत उड़ानें भरकर पुनः संस्कार रूपी ईंट में ही अनायास आ टपकता है। आध्यात्मिक पक्ष से संस्कार का बहुत अधिक महत्व है। संस्कार जबगुरु का कार्य करने लगता है तो व्यक्ति का दृष्टिकोण उसी के अनुरूप हो जाता है। संस्कार अच्छे एवं बुरे दोनों रूप में पाए जाते हैं फिर व्यक्ति, जो संवेदनशील है, उसे श्रेष्ठ धारणा से देखने लगता है, जो उसे तुच्छ, गौण या सामान्य दृष्टि से दृष्टिगोचर करने लगे, तो चाहे वह पूरी अवस्था में कितने ही ऊंची मंजिल प्राप्त किए हो, निश्चित रूप से क्षितिज की ओर स्वयं को उतरता हुआ महसूस करता है।

जहां पर विशुद्ध संस्कार रहता है, वह वायुमंडल स्वच्छ पानी सा निर्मल, फूल सा कोमल एवं हवा के समान चंचल हो कर हिलोरे लेने लगता है. इसके विपरीत होने पर वही पानी और हवा क्रमशः बाढ़ और तूफान के रूप में नाजुक फूल को ढहा देता है.अर्थात् संस्कार एक ऐसा मंत्र-यंत्र-तंत्र है जो सभी जगह अपना आधिपत्य सकारात्मक रूप से जमा देता है. संस्कार व्यक्ति के सोच, धारणा, उसकी पात्रता, शिक्षा, समाज एवं वातावरण, व्यवहारिक खानपान,रहन-सहन एवं प्रचंड इच्छाशक्ति पर निर्भर करता है. परिश्रम, ईमानदारी एवं कर्तव्यनिष्ठा व्यक्ति के हृदय को जब परिष्कृत करते हैं,निःस्वार्थ भावना से दृढ़ संकल्प रूपी कमान लेकर जब लक्ष्य पर पलकें दिखाई जाती हैं तो संस्कार औषधि का कार्य करता है अथवा रामबाण का कार्य करता है।

संस्कार साहित्य, संगीत एवं कला क्रमशः पिता, गुरु और माता है. स्पष्ट शब्दों में सा= साथ, हित्य=हित अर्थात् वह जो हित की बात पर जोर डालता है, संगीत अर्थात् एक गुरु जो अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाकर संगीत अर्थात् आनंद भर देता है. कला अर्थात् मां जो आभूषणों एवं ममता रूपी चादर में रूपवान कलाकार (शिशु) का निर्माण कर,संस्कारपीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित कर देती है।इन तीनों का संगम होने पर संस्कार से सना वह बीज आध्यात्मिकता के पथ से परमात्मा के पुण्य कार्य में शामिल होकर एक रूप की ओर ले जाता है।

आज विश्व समाज में जो हलचल, विकृतियां एवं अशांति है वह इसलिए कि संस्कार रूपी बीज का अपना प्रभाव उसकी शक्ति से कम हो गया है।विश्व, समाज उस दिन धन्य हो जाएगा जिस दिन हर व्यक्ति के मन में यह पीड़ा होगी कि मुझे कम से कम अपने विचार शुद्ध रखने होंगे क्योंकि विचारों का ही परिणाम है, अनैतिकता, भ्रष्टाचार आदि-आदि । विचार सकारात्मक तब होते हैं जब व्यक्ति का खान-पान ठीक-ठाक हो, खान-पान, रहन-सहन तभी अच्छे होंगे जब व्यक्ति में ईमानदारी, परिश्रम एवं कर्तव्यनिष्ठा तथा सूझबूझ हो । ईश्वर ने बड़ी कृपा करके, व्यक्ति को पंचतत्व का शरीर स्वतंत्र रूप से सौंपा है. शरीर रूपी संदूक के अंदर चाबी है.दरवाजा एक बाहर को खुलता है, एक अंदर को, बाहर खोलने पर मायावी एवं भौतिक व सांसारिक वातावरण का मेला है, अंदर शांति है।

संपूर्ण खजाना अंदर निहित है, पांचों ज्ञानेंद्रियों, कर्म इंद्रियों का अपना अलग से महत्व है। सर्वश्रेष्ठ मस्तिष्क व बुद्धि निहित है। एक महत्वपूर्ण अंश विवेक है. जो इसकी आज्ञा का पालन करता है, वह धोखा नहीं खाता. एक महत्वपूर्ण व्यक्ति जिससे समस्त विश्व समुदाय को मात्र अपेक्षाएं हैं, वह अपने कर्तव्य से अलग हो जाए तो संस्कार रूपी विशाल वटवृक्ष ढ़हकर उसी वक्त गिर जाता है। अतः इस विशाल वटवृक्ष को सहारा देने के लिए एक-एक घटक की जिम्मेदारी हो जाती है, कि वह तन-मन-धन से उसकी रक्षा करें उसे गिरने से बचाए, जिससे उन सभी को उससे छाया मिल सके. यदि कोई गहराई से शिक्षा लेना चाहे जो प्रकृति से सर्वश्रेष्ठ गुरु और कोई नहीं ।

संसार शब्द संशय का पर्याय है, जबकि प्रकृति सत्य एवं मूल रूप के स्वभाव का।यह निश्चित है कि प्रकृति की गोद में हम साँस ले रहे हैं, फिर क्या हम प्रकृति से विश्वासघात करें. जिस प्रकृति ने एक स्वप्न एवं लक्ष्य तक पहुंचने योग्य बनाकर उस लक्ष्य की पूर्ति के लिए साधन खड़े किए हैं. हम उसी के सपनों पर पानी फेर दे! उदाहरणार्थ किसी श्रेष्ठ गुरु ने अपना एक बीड़ा उठाया है कि वह संपूर्ण समाज को एक नई दिशा देगा उसके लिए उसने मेहनत कर कार्यकर्ता अर्थात् श्रेष्ठ गुरु या यूँकहें साथियों की एकजुट शक्ति प्राप्त करनी चाही। चिरकाल उपरांत वही शिष्य आज उसे उसके सपनों को साकार रूप देने में गति प्रदान करने की क्षमता रखने योग्य होने पर यदि स्वार्थवश या अहंकार के कारणअपने कर्तव्य से विच्छेद हो जाता है, तो इससे बड़ा और क्या पाप या विश्वासघात हो सकता है. अतः हमें एक-एक व्यक्ति को अभी यह संकल्प लेना होगा कि, हम अर्थात् मैं+मैं = हम, सभी को एकजुट करके, तन-मन से एक रूप होकर, एक चरम लक्ष्य बिंदु तक सकारात्मक दृष्टिकोण से भावी पीढ़ी को संस्कार रूपी सांप की केचुली का बीज छोड़ते हुए, यह बीज जन्म-जन्मांतर तक हस्तांतरित करते रहें, तभी यह देश, राष्ट्र एवं जी रहे व्यक्तियों, भावी कर्णधारों, बच्चे-बच्चेकेमाता-पिता, भाई-बहन, मानवता, धर्म आदि का अस्तित्व है. अन्यथा प्रकृति की व्यवस्था चरमरा जाएगी एवं विध्वंसात्मक प्रवृत्तियों से सब कुछ पल भर में ध्वस्त होकर सदा के लिए विलीन एवं गूढ़ रहस्य बन जाएगा। बीज के नष्ट होने पर पुनः नवीन समाज अपनी कलियाँ एवं पंखुड़ियाँ नहीं फैला पाएगा, वह निःसहाय हो जाएगा, अकेला दम घुट-घुट कर अंतहो जाएगा, सृष्टि खत्म हो जाएगी. तब फिर मात्र प्रायश्चित के, सूखे तिनके के अलावा कुछ हाथ न लगेगा, स्वाहा स्वाहा हो जाएगा!


श्रीशंकर दत्त पन्त