योग के विभिन्न भेद

भगवान श्रीकृष्ण और उपमन्यु जी के मध्य संपन्न वार्ता के उपरांत उपमन्यु जी ने भगवान श्री कृष्ण को योग के विभिन्न भेद, अधिकार, अंग, विधि और प्रयोजन सहित परम दुर्लभ योग का वर्णन किया।

उपमन्यु जी कहते हैं कि जिसकी दूसरी वृत्तियों का निरोध हो गया है, ऐसे चित्त की भगवान शिव में जो निश्चल वृत्ति है, उसी को संक्षेप में 'योग' कहा गया है। यह योग पांच प्रकार का है-मंत्र योग, स्पर्श योग, भाव योग, अभाव योग और महायोग।

मंत्र-जप के अभ्यासवश मंत्र के वाच्यार्थ में स्थित हुई विक्षेप रहित जो मन की वृत्ति है, उसका नाम 'मंत्र-योग' है। मन की वही वृत्ति जब प्राणायाम को प्रधानता दे तो उसका नाम 'स्पर्श योग' होता है। वही स्पर्श योग जगह मंत्र के स्पर्श से रहित हो तो 'भावयोग' कहलाता है।

जिससे संपूर्ण विश्व के रूप मात्र का अवयव विलीन (तिरोहित) हो जाता है, उसे 'अभावयोग' कहा गया है; क्योंकि उस समय सद्वस्तु का भी भान नहीं होता।

जिससे एकमात्र उपाधि शून्य शिव स्वभाव का चिंतन किया जाता है और मन की वृत्ति शिवमयी हो जाती है उसे 'महायोग' कहते हैं।।११।।

देखे और सुने गये लौकिक और पारलौकिक विषयों की ओर से जिनका मन विरक्त हो गया हो, उसी का योग में अधिकार है, दूसरे किसी का नहीं है। लौकिक और पारलौकिक दोनों विषयों के दोषों का और ईश्वर के गुणों का सदा ही दर्शन करने से मानव विरक्त होता है।

प्रायः सभी योग आठ या छः अंगों से युक्त होते हैं। यम, नियम, स्वस्तिक आदि आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि - ये विद्वानों ने योग के आठ अंग बताए हैं। आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि-ये थोड़े में योग के छः लक्षण है।

शिव शास्त्रों में इनके प्रथक्- प्रथक् लक्षण बताए गए हैं। अन्य शिवागमों में, विशेषतः कामिक आदि में, योग शास्त्रों में और किन्हीं-किन्हीं पुराणों में भी इनके लक्षणों का वर्णन है। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह इन्हें सत्पुरुषों ने यम कहा है। इस प्रकार यम पांच अवयवों के योग से युक्त है।

शौच, संतोष, तप, जप (स्वाध्याय) और प्रणिधान-इन पांच भेदों से युक्त दूसरे योगांग को नियम कहा गया है। तात्पर्य यह कि नियम अपने अंशों के भेद से पांच प्रकार का है। आसन के आठ भेद कहे गए हैं- स्वस्तिक आसन, पद्मासन, अर्ध चंद्रासन, वीरासन, योगासन, प्रसाधितासन, पर्यंकासन और अपनी रुचि के अनुसार आसन

अपने शरीर में प्रकट हुई जो वायु है उसको प्राण कहते हैं। उसे रोकना ही उसका आयाम है उस प्राणायाम के तीन भेद कहे गए हैं-रेचक, पूरक और कुंभक।

नासिका के एक छिद्र को दबाकर या बंद करके दूसरे से उदर स्थित वायु को बाहर निकाले। इस क्रिया को 'रेचक' कहा गया है। फिर दूसरे नासिका-छिद्र के द्वारा बाह्य वायु से शरीर को धौंकनी की भांति भर लें। इसमें वायु के पूरण की क्रिया होने के कारण इसे 'पूरक' कहा गया है। जब साधक भीतर की वायु को न तो छोड़ता है और न बाहर की वायु को ग्रहण करता है, केवल भरे हुए घड़े की भांति अविचल भाव से स्थित रहता है, तब उस प्राणायाम को 'कुंभक' नाम दिया जाता है, योग के साधक को चाहिए कि वह रेचक आदि तीनों प्राणायाम को न तो बहुत जल्दी-जल्दी करे और ना बहुत देर से करे। साधना के लिए उद्यत हो क्रम योग से उसका अभ्यास करे।

रेचक आदि में नाड़ी शोधन पूर्वक जो प्राणायाम का अभ्यास किया जाता है, उसे स्वेच्छा से उत्क्रमण पर्यंत करते रहना चाहिए- यह बात योगशास्त्र में बताई गई है । कनिष्ठ आदि के क्रम से प्राणायाम चार प्रकार का कहा गया है। मात्रा और गुणों के विभाग -तारतम्य से ये भेद बनते हैं।

चार भेदों में से जो कन्यक या कनिष्ठ प्राणायाम है, यह प्रथम उद्घात (उद्घात का अर्थ नाभि मूल से प्रेरणा की हुई वायु का सिर में टक्कर खाना है। यह प्राणायाम में देश, काल और संख्या का परिमाण है।) कहा गया है; इसमें 12 मात्राएं होती हैं। मध्यम प्राणायाम द्वितीय उद्घात है, उसमें 24 मात्राएं होती हैं। उत्तम श्रेणी का प्राणायाम तृतीय उद्घात है, उसमें 36 मात्राएं होती हैं। उससे भी श्रेष्ठ जो सर्वोत्कृष्ट चतुर्थ प्राणायाम (बाह्य और आभ्यन्तर विषयों को फेंकने वाला प्राणायाम) है वह शरीर में स्वेद और कम्प आदि का जनक होता है।

योगी के अंदर आनंद जनित रोमांच, नेत्रों से अश्रुपात, जल्प, भ्रान्ति और मूर्छा आदि भाव प्रकट होते हैं। घुटने के चारों ओर प्रदक्षिण-क्रम से न बहुत जल्दी और न बहुत धीरे-धीरे चुटकी बजाए। घुटने की एक परिक्रमा में जितनी देर तक चुटकी बजती है, उस समय का मान एक मात्रा है। मात्राओं को क्रमशः जानना चाहिए। उद्घात क्रम-योग से नाड़ी शोधन पूर्वक प्राणायाम करना चाहिए।

प्राणायाम के दो भेद बताए गए हैं अगर्भ और सगर्भ। जप और ध्यान के बिना किया गया प्राणायाम 'अगर्भ' कहलाता है और जप तथा ध्यान के सहयोग पूर्वक किए जाने वाले प्राणायाम को 'सगर्भ' कहते हैं। अगर्भ से सगर्भ प्राणायाम 100 गुना अधिक उत्तम है। इसलिए योगी जन प्रायः सगर्भ प्राणायाम किया करते हैं प्राण विजय से ही शरीर की वायुओं पर विजय पाई जाती है।

प्राण, अपान, समान, उदान, व्यान, नाग, कूर्म, कृकल, देवदत्त और धनंजय-ये 10 प्राणवायु हैं। प्राण प्रयाण करता है, इसलिए उसे 'प्राण' कहते हैं। जो कुछ भोजन किया जाता है, उसे जो वायु नीचे ले जाती है, उसको 'अपान' कहते हैं। जो वायु संपूर्ण अंगों को बढ़ाती हुई उनमें व्याप्त रहती है, उनका नाम 'व्यान' है। जो वायु मर्म स्थानों को उत्तेजित करती है, उसकी 'उदान' संज्ञा है। जो वायु सब अंगों को समभाव से ले चलती है, वह अपने उस समनयनरूप कर्म से 'समान' कहलाती है।

मुख से कुछ उगलने में कारण भूत वायु को 'नाग' कहा गया है। आंख खोलने के व्यापार में 'कूर्म' नामक वायु की स्थिति है। छींक में 'कृकल' और जँभाई में 'देवदत्त' नामक वायु की स्थिति है। 'धनंजय' नामक वायु संपूर्ण शरीर में व्याप्त रहती है। वह मृतक शरीर को भी नहीं छोड़ती। क्रम से अभ्यास में लाया हुआ यह प्राणायाम जब उचित प्रमाण या मात्रा से युक्त हो जाता है, तब वह कर्ता के सारे दोषों को दग्ध कर देता है और उसके शरीर की रक्षा करता है।

प्राण पर विजय प्राप्त हो जाए तो उससे प्रकट होने वाले चिन्हों को अच्छी तरह देखें। पहली बात यह होती है कि विष्ठा, मूत्र और कफ की मात्रा घटने लगती है, अधिक भोजन करने की शक्ति हो जाती है और विलंब से सांस चलती है। शरीर में हल्कापन आता है। शीघ्र चलने की शक्ति प्रकट होती है। हृदय में उत्साह बढ़ता है। स्वर में मिठास आती है। समस्त रोगों का नाश हो जाता है। बल, तेज और सौंदर्य की वृद्धि होती है।

धृति, मेधा, युवापन, स्थिरता और प्रसन्नता आती है। तप, प्रायश्चित, यज्ञ, दान और व्रत आदि जितने भी साधन हैं-यह प्राणायाम की 16 कला के बराबर नहीं है।

अपने-अपने विषय में आसक्त हुई इंद्रियों को वहां से हटाकर जो अपने भीतर निगृहीत करता है, उस साधन को 'प्रत्याहार' कहते हैं। मन और इन्द्रियाँ ही मनुष्य को स्वर्ग तथा नरक में ले जाने वाली हैं। [यदि उन्हें वश में रखा जाए तो वे स्वर्ग की प्राप्ति कराती हैं और विषयों की ओर खुली छोड़ दी जाए तो वह नरक में डालने वाली होती है।] इसलिए सुख की इच्छा रखने वाले बुद्धिमान पुरुष को चाहिए कि वह ज्ञान वैराग्य का आश्रय ले इंद्रिय रूपी अश्वों को शीघ्र ही काबू में करके स्वयं ही आत्मा का उद्धार करे।

चित्त को किसी स्थान-विशेष में बांधना-किसी ध्येय-विशेष में स्थिर करना-यही संक्षेप में 'धारणा' का स्वरूप है। एकमात्र शिव ही स्थान है, दूसरा नहीं; क्योंकि दूसरे स्थानों में त्रिविध दोष विद्यमान हैं। किसी नियमित काल तक स्थान स्वरूप शिव में स्थापित हुआ मन जब लक्ष्य से च्युत न हो तो धारणा की सिद्धि समझनी चाहिए, अन्यथा नहीं। मन पहले धारणा से ही स्थिर होता है, इसलिए धारणा के अभ्यास से मन को धीर बनाएं।

[अब ध्यान की व्याख्या करते हैं।]

ध्यान में 'ध्यै चिंतायाम' धातु मानी गई है। [इसी धातु से ल्युट प्रत्यय करने पर 'ध्यान' की सिद्धि होती है;] अतः विक्षेप रहित चित्त से जो शिव का बारंबार चिंतन किया जाता है, उसी का नाम 'ध्यान' है। ध्येय में स्थित हुए चित्त की ध्येयाकार वृत्ति होती है और बीच में दूसरी वृत्ति अंतर नहीं डालती; उस ध्येयाकार वृत्ति का प्रवाह रूप से बना रहना 'ध्यान' कहलाता है। दूसरी सब वस्तुओं को छोड़कर केवल कल्याणकारी परम देवदेवेश्वर शिव का ही ध्यान करना चाहिए। वे ही सबके परम ध्येय हैं। यह अथर्वेद की श्रुति का अंतिम निर्णय हैं।

इसी प्रकार शिवा देवी भी परम ध्येय हैं। ये दोनों शिवा और शिव संपूर्ण भूतों में व्याप्त हैं। श्रुति, स्मृति और शास्त्रों से यह सुना गया है कि शिवा और शिव सर्व व्यापक, सर्वदा उदित, सर्वज्ञ और नाना रूपों में निरंतर ध्यान करने योग्य हैं।

इस ध्यान के दो प्रयोजन जानने चाहिए। पहला है मोक्ष और दूसरा प्रयोजन है अणिमा आदि सिद्धियों की उपलब्धि। ध्याता, ध्यान, ध्येय और ध्यान-प्रयोजन-इन चारों को अच्छी तरह जान कर योगवेत्ता पुरुष योग का अभ्यास करें। जो ज्ञान और वैराग्य से संपन्न, श्रद्धालु, क्षमाशील ममता रहित तथा सदा उत्साह रहने वाला है, ऐसा ही पुरुष ध्याता कहा गया है अर्थात वही ध्यान करने में सफल हो सकता है।

साधक को चाहिए कि वह जप से थकने पर फिर ध्यान करे और ध्यान से थक जाने पर पुनः जप करें। इस तरह जप और ध्यान में लगे हुए पुरुष का योग जल्दी सिद्ध होता है। 12 प्राणायामों की एक धारणा होती है 12 धारणाओं का ध्यान होता है और 12 ध्यान की एक समाधि कही गई है। समाधि को योग का अंतिम अंग कहा गया है। समाधि से सर्वत्र बुद्धि का प्रकाश फैलता है।

जिस ध्यान में केवल ध्येय ही अर्थ रूप से भासता है ध्याता निश्चल महासागर के समान स्थिर भाव से स्थित रहता है और ध्यान रूप से शून्य-सा हो जाता है, उसे 'समाधि' कहते हैं। जो योगी ध्येय में चित्त को लगाकर सुस्थिर भाव से उसे देखता है और बुझी हुई आग के समान शांत रहता है, वह 'समाधिस्थ' कहलाता है।

वह न सुनता है, न सूंघता है, न बोलता है, न देखता है, न स्पर्श का अनुभव करता है, न मन से संकल्प-विकल्प करता है, न उसमें अभिमान की वृत्ति का उदय होता है और न वह बुद्धि के द्वारा ही कुछ समझता है केवल काष्ठ की भांति स्थिर रहता है। इस तरह शिव में लीनचित्त हुई योगी को यहां समाधिस्थ कहा जाता है।

जैसे वायु रहितस्थान में रखा हुआ दीपक कभी हिलता नहीं है। निःस्पंद बना रहता है, उसी तरह समाधिनिष्ठ शुद्ध चित्त योगी भी उस समाधि से कभी विचलित नहीं होता-सुस्थिर भाव से स्थिर रहता है। इस प्रकार उत्तम योग का अभ्यास करने वाले योगी के सारे अंतराय शीघ्र नष्ट हो जाते हैं और संपूर्ण विघ्न भी धीरे-धीरे दूर हो जाते हैं।


सादर आभार

श्री शिव महापुराण / सातवीं वायवीय संहिता के उत्तरखंड में वायु और नैमिषीय ऋषियों के संवाद में योग गति वर्णन नामक 37 वां अध्याय।